विनायक दामोदर सावरकर एक क्रांतिकारी, विचारक और हिन्दुत्व के वैचारिक पुरोधा हैं। आज़ादी के पहले वे जहां क्रांतिकारी आंदोलन के प्रतीक थे, वहीं आज की भारतीय राजनीति में वे तीव्र बहस और ध्रुवीकरण के केंद्रबिंदु बन गए हैं। उनकी क्षमायाचना याचिका को लेकर अक्सर उन्हें ‘गद्दार’, ‘अंग्रेजों का दलाल’, ‘माफीवीर’ कहा जाता है।
सावरकर की याचिकाओं को आप यहाँ पढ़ सकते हैं लेकिन सवाल है कि क्या विनायक सावरकर अकेले हैं जिन्होंने ब्रिटिश सरकार से क्षमा या राहत मांगी? या कई स्वतंत्रता सेनानियों ने समय-समय पर अपनी रणनीति के तहत अंग्रेजों से संवाद किया, याचिकाएँ भेजीं। क्या इतिहास को इतने सरलीकृत दृष्टिकोण से देखा जा सकता है? हमने अपनी इस रिपोर्ट में कुछ ऐसी ही याचिकाएं शामिल की हैं जिनकी वजह से विनायक दामोदर सावरकर पर सवाल उठाए जाते हैं, इस लेख में सभी प्रमाणिक साक्ष्यों को शामिल किया गया है।
अलीपुर बम केस: अक्टूबर 1913 में भारत सरकार के गृह सदस्य रेजिनाल्ड हेनरी क्रैडॉक ने जब सेलुलर जेल का दौरा किया तो विनायक दामोदर सावरकर की तरह स्वतंत्रता सेनानी और अलीपुर बम केस में सजा काट रहे बरिंद्र घोष, हृषिकेश कंजीलाल, नंद गोपाल, सुधीर कुमार सरकार ने भी क्रैडॉक को अपनी याचिकाएं दी।
हृषिकेश कंजीलाल ने अपनी याचिका में लिखा कि मेरा वजट घट गया है। हर वर्ष मैं देखता हूँ कि मेरे कई साथी एक-एक कर मरते जा रहे हैं। इन परिस्थितियों में, मेरी ज़िंदगी यहाँ कुछ भी नहीं है। ना मुझे राजनीतिक कैदी के रूप में देखा जाता है, ना ही साधारण कैदी के जैसे व्यवहार किया जाता है। बल्कि मुझे साधारण कैदियों की सभी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती हैं, पर उनके जैसे कोई भी सुविधा नहीं मिलती। एक आम कैदी को उसकी सज़ा शुरू होने के कुछ समय बाद जेल वार्डर बना दिया जाता है, लेकिन मैं, जिसने अपनी सज़ा का बड़ा हिस्सा पूरा कर लिया है, अब तक जेल वार्डर या पेटी अफ़सर नहीं बना। एक साधारण पढ़ा-लिखा कैदी तीन या चार महीने के भीतर किसी दफ्तर में क्लर्क बन जाता है, लेकिन मुझे तो कलम छूने की भी इजाज़त नहीं है, क्योंकि कलम छूना यहाँ अपराध है। महोदय, यहाँ तो यह भी बहुत आसान है कि मुझ पर झूठा मुकदमा बना दिया जाए। मैं बाहर हमेशा अच्छा व्यवहार करता आया हूँ, फिर भी मुझे अन्यायपूर्वक जेल में डाल दिया गया। इसलिए मेरी विनम्र प्रार्थना है कि कृपया मुझे भारत की किसी जेल में भेज दिया जाए जहाँ मुझे कम से कम वही सुविधाएँ मिल सकें जो एक साधारण कैदी को मिलती हैं। अगर सरकार मुझे भारत की किसी जेल में नहीं भेज सकती, तो कृपया मुझे वही सुविधाएँ दें जो एक भारतीय जेल में दी जाती हैं — जैसे कि समाचार पत्र पढ़ने की अनुमति, हर चार महीने में रिश्तेदारों से पत्र, और समय-समय पर मुलाक़ात। फिलहाल मुझे इस बात की शिकायत नहीं है कि मुझे इस समय चिकित्सा संबंधी कोई परेशानी हो रही है, क्योंकि वर्तमान सुपरिटेंडेंट एक अत्यंत दयालु और श्रेष्ठ डॉक्टर हैं। लेकिन मैं सुनता हूँ कि वे जल्द ही यहाँ से चले जाएंगे। भविष्य में मेरे साथ कैसा व्यवहार किया जाएगा, मुझे नहीं पता। मैं अत्यंत विनम्रता से अपनी इस याचिका को प्रस्तुत करता हूँ और आपसे करबद्ध प्रार्थना करता हूँ कि कृपया इसे ध्यानपूर्वक विचार में लें।

बरिन्द्र घोष ने अपनी याचिका में लिखा कि मैं अत्यंत सम्मान और विनम्रता के साथ निवेदन करता हूँ कि मुझे दी गई 20 वर्षों की काले पानी की सज़ा मेरे लिए मृत्यु दंड के समान है। मेरा शारीरिक स्वास्थ्य बहुत ही कमजोर है — मुझे मलेरिया बुखार की पुरानी बीमारी है और मैं हमेशा से अस्वस्थ रहा हूँ। इसी कारणवश, इस समय मेरा वजन केवल 92 पाउंड रह गया है। पोर्ट ब्लेयर मलेरिया और अन्य बीमारियों का गढ़ है, और इस प्रकार की प्राकृतिक कठिनाइयों के साथ-साथ इस जेल जीवन की कठोरता ने मेरी सेहत को इस कदर बिगाड़ दिया है कि मेरा असामयिक निधन निश्चित जान पड़ता है। करीब चार महीने पहले मुझे टायफाइड बुखार ने जकड़ लिया था, और उस समय मेरा वजन घटकर 80 पाउंड तक आ गया था, और मेरी जान पर बन आई थी। मेरे कृपालु सीनियर मेडिकल अफसर कैप्टन मरे और डॉ. मंडल द्वारा की गई अत्यंत देखभाल ने मुझे मृत्यु के मुंह से बचा लिया। इसके अलावा, मैंने अलीपुर जेल और इस जेल में भी कठोर परिस्थितियों का गंभीर रूप से सामना किया है — यह वह कष्ट है जिससे कोई भी जेल अधिकारी, चाहे वह कितना ही संवेदनशील और सहानुभूतिपूर्ण क्यों न हो, मुझे नहीं बचा सकता, जब तक कि महामहिम इस पर कृपा कर के राहत न दें। जब हमारे परम पूज्य सम्राट के राज्याभिषेक के समय हमारी क्षमा प्राप्ति की आशा प्रबल थी, पर वह पूरी नहीं हुई। आप जैसे एक मान्यवर अतिथि की उपस्थिति ने हमारे मृत आशाओं को पुनर्जीवित किया है। रूस की निरंकुश सरकार ने अपने सभी राजनीतिक कैदियों को आम माफी दे दी है, और हमें विश्वास है कि हमारी सरकार, जो सभ्यता और संस्कृति की अगुवाई करती है, वह भी हमारे जैसे कुछ गुमराह नवयुवकों की पिछली भूलों को क्षमा करने में असफल नहीं होगी। मैं यह शपथपूर्वक कहता हूँ कि यदि महामहिम की इच्छा होती है कि मैं यहीं रहूँ, तो मैं हर प्रकार के आंदोलनों से दूर रहूँगा और उनके प्रत्येक आदेश का पालन करूँगा। इससे अधिक मैं इस याचिका में कुछ नहीं कह सकता। यदि मेरी यह विनती स्वीकार नहीं होती, तो मेरी यह आशा है कि महामहिम कृपापूर्वक मुझे भारत के किसी ऐसे स्थान पर भेज देंगे जहाँ मुझे इस जेल के नियमों की तुलना में बेहतर भोजन और पोषण मिल सके। कृपापूर्वक विचार करने की अपेक्षा के साथ।

नन्द गोपाल ने अपनी याचिका में लिखा कि हम उन सभी सुविधाओं से वंचित हो गए जो एक कैदी को भारतीय जेल में मिलती हैं। भारतीय जेलों में कैदी साल में दो बार अपने माता-पिता, मित्रों और रिश्तेदारों से मिल सकता है, साल में कम से कम दो पत्र लिख सकता है। जब वह Convict Night Watcher या वार्डन बनता है तो और भी पत्रों की अनुमति मिलती है। उसे जितनी किताबें भेजी जाएँ, वह रख सकता है। उसे धूप और बारिश में कठोर श्रम नहीं करना पड़ता, जैसा कि हमें करना पड़ता है। हमें जो कठिन श्रम करना पड़ता है, उसकी तुलना में आधा भी भारतीय जेल में नहीं करना पड़ता। हमें मिलने वाला भोजन गुणवत्ता और मात्रा दोनों में हीन है। मैंने एक बार कैप्टन बार्कर से शिकायत की, लेकिन उसने कोई ध्यान नहीं दिया। कृपया मेरी इस प्रार्थना-पत्र को वायसराय के समक्ष सहानुभूति से प्रस्तुत करें।

सुधीर कुमार सरकार ने अपनी याचिका में लिखा कि मैंने इस संस्था के साहित्यिक विभाग से इसलिए जुड़ाव बनाया था ताकि देश की सेवा कर सकूं, बिना इस बात की जानकारी के कि यह संगठन अराजकतावादी गतिविधियों में संलिप्त है। मेरा आपसे निवेदन है कि मेरी वर्तमान दुखद अवस्था पर कृपा करें। मैंने उस समय कम समझ और उम्र के कारण एक अतिवादी संगठन से जुड़ने की गलती की थी, जिसे मैंने अब पूरी तरह समझ लिया है कि यह हमारे राष्ट्र के लिए विनाशकारी था। राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक रूप से यह संगठन व्यक्ति को निम्न स्तर पर ले जाता है। जैसे-जैसे मेरी आयु और ज्ञान में वृद्धि हुई है, मैं सही और गलत में अंतर समझने में सक्षम हो पाया हूं। मैंने अपनी सजा का तीन-चौथाई भाग अच्छे आचरण के साथ पूरा कर लिया है। मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि विचाराधीन अवधि को मेरी सजा में जोड़कर मुझे शीघ्र रिहा किया जाए। मैं अपने परिवार और देश की सेवा करना चाहता हूं, थोड़ी और शिक्षा प्राप्त कर कृषि कॉलेज में प्रवेश लेना चाहता हूं और एक जिम्मेदार नागरिक बनकर अपने गरीब देशवासियों की सेवा करना चाहता हूं।

(Source: राष्ट्रीय अभिलेख में यहाँ पढ़िए)
बनारस षड्यंत्र केस: प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गदर पार्टी ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एक सशस्त्र विद्रोह की योजना बनाई। सचिन्द्र नाथ सान्याल इस योजना में सक्रिय रूप से शामिल थे और विद्रोह को संगठित करने में मदद कर रहे थे। साल 1915 में सान्याल बनारस (अब वाराणसी) में क्रांतिकारियों के एक गुप्त संगठन से जुड़े थे। ब्रिटिश सरकार को इस संगठन के खिलाफ साक्ष्य मिले, जिससे उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। सचिन्द्र नाथ सान्याल को काला पानी (अंडमान निकोबार की सेल्युलर जेल) भेज दिया गया, जहाँ उन्हें कठोर कारावास की सजा दी गई। हालांकि कुछ वर्षों बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।
सचिन्द्र नाथ सान्याल ने ‘बंदी जीवन‘ किताब लिखी है। इस किताब में उन्होंने क्रांतिकारी जीवन, जेल में बिताए गए समय और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए अपने विचारों को व्यक्त किया है। इसी किताब में सचिन्द्र नाथ ने बताया है कि उन्होंने भी सावरकार की तरह याचिका दायर की थी।
सचिन्द्र लिखते हैं, ‘जब मैं अण्डमन से छूटकर आया था तो श्रीयुत बीसी चटर्जी साहब ने मुझसे एक बात कही थी जिसका उल्लेख यहाँ कर देना आवश्यक है। मैंने अंडमान से एक चिट्ठी में ऐसा लिखा था कि यदि ब्रिटिश सरकार भारतवासियों को यथार्थ में यह मौका देती है कि हम अपने देश की भलाई के लिए जो ठीक समझें उसे कर सकें तो गुप्त षड्यन्त्र के द्वारा खून-खराबी के रास्ते से आग को लेकर हम खिलवाड़ क्यों करें। चटर्जी साहब ने मुझसे यह कहा था कि ब्रिटिश सरकार सचमुच ऐसा अवसर हमें देगी इसलिए अब तुम्हारा कर्तव्य है कि सच्चे दिल से माष्टेगू के सुधार को लेकर काम करो और गुप्त षड्यन्त्र के रास्ते को त्याग दो । इसी आशा से और इसी विश्वास से सरकार ने तुम्हें छोड़ दिया है। मैंने जवाब में यह कहा था कि विनायक दामोदर सावरकर ने भी तो अपनी चिट्ठी में ऐसी ही भावना प्रकट की थी जैसीकि मैंने की है तो फिर सावरकर को क्यों नहीं छोड़ा गया और मुझ को क्यों छोड़ा गया? यदि आपकी बात सत्य होती तो सावरकर को भी छोड़ना चाहिए था। मैं तो यह समझता हूँ कि मेरे छूटने और सावरकरजी के न छूटने में दो बातें हैं। एक तो यह कि बंगाल के जनमत ने मेरे जैसे राजनीतिक बन्दियों को छुड़ाने के लिए प्रबल आग्रह किया था । राजबन्दियों की रिहाई के मूल में यही बात बहुत बड़ी थी। लेकिन महाराष्ट्र में उतना तीव्र आन्दोलन नहीं हुआ जैसाकि बंगाल में हुआ। दूसरी बात सावरकरजी के न छूटने में यह थी कि सावरकरजी और उनके दो-चार साथियों की गिरफ्तारी के बाद महाराष्ट्र में क्रान्तिकारी आन्दोलन समाप्त हो गया था। इसलिए सरकार को यह डर था कि यदि सावरकर इत्यादि को छोड़ दिया जाय तो ऐसा नहो कि फिर महाराष्ट्र में क्रान्तिकारी आन्दोलन प्रारम्भ हो जाए। इसके अतिरिक्त एक बात यह भी थी कि सावरकरजी के द्वारा इग्लैंड के एक अंग्रेज की हत्या हुई थी। इस पर ब्रिटिश सरकार को विशेष क्रोध था। राजबन्दियों की मुक्ति के समय सरकार ने यह नीति बना ली थी कि जिन पर किसी की हत्या करना या डकैती करने का अपराध लगाया गया था उन्हें न छोड़ा जाय । इस नीति के अनुसार भी सावरकर नहीं छोड़े जा सकते थे। कारण उन पर हत्या करने का अपराध लगाया गया था।’
सचिन्द्र नाथ सान्याल को शाही माफी के तहत सजा माफी की पुष्टि नीचे दिया गया ब्रिटिश सरकार का दस्तावेज भी करता है।

(Source: ब्रिटिश सरकार का अभिलेख यहाँ मौजूद हैं)
दिल्ली-लाहौर षडयंत्र केस:: साल 1912 में दिल्ली के चांदनी चौक में बम फेंका गया। यह बम तत्कालीन वायसराय लार्ड हार्डिंग को मारने के लिए फेंका गया था हालाँकि लार्ड हार्डिंग इस हमले में बच गए। इसे ही दिल्ली षडयंत्र केस के रूप में जाना जाता है। लॉर्ड हार्डिंग बम कांड में मास्टर अमीर चंद, भाई बालमुकुंद, मास्टर अवध बिहारी, बसंत कुमार विश्वास को फांसी दी गई।
दिल्ली षडयंत्र केस में मास्टर अमीर चंद, भाई बालमुकुंद, मास्टर अवध बिहारी, बसंत कुमार विश्वास ने ‘माफी’ याचिका दायर की थी। यह माफी याचिकाएं कई बार दायर की गयी।

(Source: दया याचिका के सम्बन्ध में भारत सरकार के अभिलेख को यहाँ ऑनलाइन पढ़ा जा सकता है।)
काकोरी कांड: हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खाँ, रोशन सिंह और राजेंद्र लाहिड़ी ने लखनऊ के पास काकोरी स्टेशन पर एक ट्रेन को रोकाकर अंग्रेजी खजाना लूटा था। यह धन क्रांतिकारी गतिविधियों को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी था। इस घटना के बाद ब्रिटिश सरकार ने बिस्मिल सहित कई क्रांतिकारियों को गिरफ्तार किया। इस मामले में 19 दिसंबर 1927 को चारो क्रांतिकारियों को गोरखपुर जेल में फाँसी दे दी गई।
राम प्रसाद बिस्मिल ने गोरखपुर जेल में ‘बिस्मिल की आत्मकथा‘ किताब लिखी थी। यह आत्मकथा उनके क्रांतिकारी जीवन, विचारधारा, संघर्ष और बलिदान को दर्शाती है। इसी किताब में राम प्रसाद बिस्मिल ने बताया है कि उन्होंने और उनके साथियों ने फांसी से बचने के लिए याचिकाएं लिखी।
राम प्रसाद बिस्मिल ने इस किताब में फांसी से पूर्व ‘अंतिम समय की बात’ चैप्टर में लिखा, ‘आज 16 दिसम्बर 1927 ई० को निम्नलिखित पंक्तियों का उल्लेख कर रहा हूं, जबकि 19 दिसम्बर 1927 ई० सोमवार (पौष कृष्णा 11 सम्वत् 1984 वि०) को 6 बजे प्रातःकाल इस शरीर को फांसी पर लटका देने की तिथि निश्चित हो चुकी है।….’
उन्होंने आगे लिखा, ‘अब मैं उन बातों का उल्लेख कर देना उचित समझता हूं, जो काकोरी षड्यन्त्र के अभियुक्तों के सम्बन्ध में सेशन जज के फैसला सुनाने के पश्चात घटित हुई। 6 अप्रैल सन् 1927 ई० को सेशन जज ने फैसला सुनाया था। 7 जुलाई सन् 1927 ई० को अवध चीफ कोर्ट में अपील हुई। इसमें कुछ की सजाएं बढ़ीं और एकाध की कम भी हुई। अपील होने की तारीख से पहले मैने संयुक्त प्रान्त के गवर्नर की सेवा में एक मेमोरियल भेजा था, जिसमें प्रतिज्ञा की थी कि अब भविष्य में क्रान्तिकारी दल से कोई सम्बन्ध न रखूंगा। इस मेमोरियल का जिक्र मैंने चीफ कोर्ट के जजों को भेजे गए अपनी अन्तिम दया-प्रार्थना पत्र में कर दिया था। किन्तु चीफ कोर्ट के जजों ने मेरी किसी प्रकार की प्रार्थना स्वीकार न की। मैंने स्वयं ही जेल से अपने मुकदमे की बहस लिखकर भेजी छापी गई। जब यह बहस चीफ कोर्ट के जजों ने सुनी उन्हें बड़ा सन्देह हुआ कि बहस मेरी लिखी हुई न थी। इन तमाम बातों का नतीजा यह निकला कि चीफ कोर्ट अवध द्वारा मुझे महाभयंकर षड्यन्त्रकारी की पदवी दी गई। मेरे पश्चाताप पर जजों को विश्वास न हुआ और उन्होंने अपनी धारणा को इस प्रकार प्रकट किया कि यदि यह (रामप्रसाद) छूट गया तो फिर वही कार्य करेगा। बुद्धि की प्रखरता तथा समझ पर प्रकाश डालते हुए मुझे ‘निर्दयी हत्यारे’ के नाम से विभूषित किया गया। लेखनी उनके हाथ में थी, जो चाहे सो लिखते, किन्तु काकोरी षड्यन्त्र का चीफ कोर्ट का आद्योपान्त फैसला पढ़ने से भलीभांति विदित होता है कि मुझे मृत्युदण्ड किस ख्याल से दिया गया। यह निश्चय किया गया कि रामप्रसाद ने सेशन जज के विरुद्ध अपशब्द कहे हैं, खुफिया विभाग के कार्यकर्ताओं पर लांछन लगाये हैं अर्थात् अभियोग के समय जो अन्याय होता था, उसके विरुद्ध आवाज उठाई है, अतःएव रामप्रसाद सब से बड़ा गुस्ताख मुलजिम है। अब माफी चाहे वह किसी रूप में मांगे, नहीं दी जा सकती।’

रामप्रसाद प्रसाद ने किताब में लिखा, ‘चीफ कोर्ट से अपील खारिज हो जाने के बाद यथानियम प्रान्तीय गवर्नर तथा फिर वाइसराय के पास दया प्रार्थना की गई। रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, रोशनसिंह तथा अशफाकउल्ला खां के मृत्यु-दण्ड को बदलकर अन्य दूसरी सजा देने की सिफारिश करते हुए संयुक्त प्रान्त की कौंसिल के लगभग सभी निर्वाचित हुए मेम्बरों ने हस्ताक्षर करके निवेदन पत्र दिया। मेरे पिता ने ढ़ाई सौ रईस, आनरेरी मजिस्ट्रेट तथा जमींदारों के हस्ताक्षर से एक अलग प्रार्थना पत्र भेजा, किन्तु श्रीमान सर विलियम मेरिस की सरकार ने एक न सुनी! उसी समय लेजिस्लेटिव असेम्बली तथा कौंसिल ऑफ स्टेट के 78 सदस्यों ने हस्ताक्षर करके वाइसराय के पास प्रार्थनापत्र भेजा कि काकोरी षड्यन्त्र के मृत्युदण्ड पाए हुओं को मृत्युदण्ड की सजा बदल कर दूसरी सजा कर दी जाए क्योंकि दौरा जज ने सिफारिश की है कि यदि ये लोग पश्चाताप करें तो सरकार दण्ड कम दे। चारों अभियुक्तों ने पश्चाताप प्रकट कर दिया है। किन्तु वाइसराय महोदय ने भी एक न सुनी।‘

अपनी किताब में रामप्रसाद प्रसाद ने आगे लिखा, ‘इस विषय में माननीय पं० मदनमोहन मालवीय जी ने तथा असेम्बली के कुछ अन्य सदस्यों ने वाइसराय से मिलकर भी प्रयत्न किया था कि मृत्युदण्ड न दिया जाए। इतना होने पर सबको आशा थी कि वाइसराय महोदय अवश्यमेव मृत्युदण्ड की आज्ञा रद्द कर देंगे। इसी हालत में चुपचाप विजयदशमी से दो दिन पहले जेलों को तार भेज दिए गए कि दया नहीं होगी सब की फांसी की तारीख मुकर्रर हो गई। जब मुझे सुपरिण्टेण्डेंट जेल ने तार सुनाया, तो मैंने भी कह दिया था कि आप अपना काम कीजिए। किन्तु सुपरिण्टेण्डेंट जेल के अधिक कहने पर कि एक तार दया-प्रार्थना का सम्राट के पास भेज दो क्योंकि यह उन्होंने एक नियम सा बना रखा है कि प्रत्येक फांसी के कैदी की ओर से जिस की भिक्षा की अर्जी वाइसराय के यहां खारिज हो जाती है, वह एक तार सम्राट के नाम से प्रान्तीय सरकार के पास अवश्य भेजते हैं। कोई दूसरा जेल सुपरिण्टेण्डेंट ऐसा नहीं करता। उपरोक्त तार लिखते समय मेरा कुछ विचार हुआ कि प्रिवी कौंसिल इंग्लैण्ड में अपील की जाए। मैंने श्रीयुत मोहनलाल सक्सेना वकील लखनऊ को सूचना दी। बाहर किसी को वाइसराय द्वारा अपील खरिज करने की बात पर विश्वास भी न हुआ। जैसे तैसे करके श्रीयुत मोहनलाल द्वारा प्रिवीकौंसिल में अपील कराई गई। नतीजा तो पहले से मालूम था। वहां से भी अपील खारिज हुई। यह जानते हुए कि अंग्रेज सरकार कुछ भी न सुनेगी मैंने सरकार को प्रतिज्ञा-पत्र क्यों लिखा ? क्यों अपीलों पर अपीलें तथा दया-प्रार्थनाएं कीं? इस प्रकार के प्रश्न उठ सकते हैं। समझ में सदैव यही आया कि राजनीति एक शतरंज के खेल के समान है। शतरंज के खेलने वाले भली भांति जानते हैं कि आवश्यकता होने पर किस प्रकार अपने मोहरे मरवा देने पड़ते हैं।‘
रामप्रसाद प्रसाद ने आगे लिखा, ‘श्री अशफाकउल्ला खां तो अंग्रेजी सरकार से दया प्रार्थना करने पर राजी ही न थे। उसका तो अटल विश्वास यही था कि खुदाबन्द करीम के अलावा किसी दूसरे से प्रार्थना न करनी चाहिए, परन्तु मेरे विशेष आग्रह से ही उन्होंने सरकार से दया प्रार्थना की थी। इसका दोषी मैं ही हूं जो मैंने अपने प्रेम के पवित्र अधिकारों का उपयोग करके श्री अशफाकउल्ला खां को उनके दृढ़ निश्चय से विचलित किया। मैंने एक पत्र द्वारा अपनी भूल स्वीकार करते हुए भ्रातृ-द्वितीया के अवसर पर गोरखपुर जेल से श्री अशफाक को पत्र लिखकर क्षमा प्रार्थना की थी। परमात्मा जाने कि वह पत्र उनके हाथों तक पहुंचा भी था या नहीं। खैर ! परमात्मा की ऐसी इच्छा थी कि हम लोगों को फांसी दी जाए, भारतवासियों के जले हुए दिलों पर नमक पड़े, वे बिलबिला उठें और हमारी आत्माएं उनके कार्य को देखकर सुखी हों। जब हम नवीन शरीर धारण करके देश सेवा में योग देने को उद्यत हों, उस समय तक भारतवर्ष की राजनैतिक स्थिति पूर्णतया सुधरी हुई हो। जनसाधारण का अधिक भाग सुरक्षित हो जाए । ग्रामीण लोग भी अपने कर्तव्य समझने लग जाएं।’
(Source: राष्ट्रीय अभिलेख में यहाँ भी याचिकाओं का जिक्र है)
इसी काकोरी काण्ड में सचिन्द्र नाथ सान्याल का नाम भी आया, इसके चलते उन्हें एक बार फिर साल 1925 में कालापानी की सजा सुनाई गई। साल 1937 में जेल से रिहा हुए लेकिन वो अपनी जिन्दगी के आखिरी दिनों तक नजरबंद रहे। बाद में टीबी की बीमारी से उनकी मौत हो गयी।
सचिन्द्र ने 18 मार्च 1941 को भारत सरकार के गृह सदस्य को एक पत्र में लिखा कि जेल से रिहा होने के बाद से उन्होंने राजनीति से पूरी तरह दूरी बना ली। वे पुराने क्रांतिकारियों से भी नहीं मिले, सिवाय उनके जो उनसे संयोगवश मिल गए। यह सुनिश्चित किया कि वे किसी भी राजनीतिक गतिविधि में संलिप्त न हों, ताकि पुलिस उन्हें परेशान न करे। जब द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ, तो उन्होंने किसी भी राजनीतिक गतिविधि में भाग नहीं लिया। फिर भी उन्हें बिना किसी स्पष्ट कारण के गिरफ्तार कर लिया गया और जेल में डाल दिया गया। पहले उन्हें दिल्ली कैंप में रखा गया, जहाँ उनके परिवार के लिए कोई सुविधा नहीं थी। वे अपनी पत्नी और बच्चों को पत्र भी नहीं लिख सकते थे, और यदि पत्र भेजते थे, तो उन्हें बंगाली भाषा में लिखने की अनुमति नहीं थी। बंगाली पुस्तकें जो उनके मित्र भेजते थे, वे भी ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर ली जाती थीं। उन्होंने सरकार से अपनी रिहाई की अपील की। उन्होंने लिखा कि यदि उन्हें जल्द से जल्द रिहा नहीं किया गया, तो उनका स्वास्थ्य पूरी तरह से बिगड़ सकता है और उनकी मृत्यु हो सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि उनका राजनीतिक गतिविधियों से कोई संबंध नहीं है, इसलिए उन्हें रिहा कर देना चाहिए।
सचिन्द्र नाथ सान्याल ने 19 मार्च 1941 को एक दूसरा पत्र लिखा। उन्होंने भारत सरकार से न्याय की गुहार लगाई और अपनी गिरफ्तारी को अनुचित और अन्यायपूर्ण बताया। सचिन्द्र ने जर्मनी के कॉन्सेंट्रेशन कैंप्स (नाजी यातना शिविर) का उदाहरण देते हुए कहा कि वहाँ भी कैदियों को एक समय बाद रिहा कर दिया जाता था लेकिन भारत में सरकार कुछ नहीं कर रही।
(Source: राष्ट्रीय अभिलेख में यहाँ पढ़िए)
बोल्शेविक षड्यंत्र केस: श्रीपाद अमृत डांगे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य थे। साल 1924 में ब्रिटिश शासनकाल में अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें कम्युनिस्ट तथा ट्रेड यूनियन की गतिविधियों के लिए कुल 13 वर्ष के कारावास की सजा दी थी। इस मामले में नलिनी भूषण दास गुप्ता, शौकत उस्मान, मुज़फ्फर अहमद, सिंगारवेलु चेट्टियार को भी सजा सुनाई गयी।

इस सजा के सम्बन्ध में श्रीपाद अमृत डांगे और नलिनी भूषण दास गुप्ता ने ब्रिटिश सरकार को माफी याचिका दी। अपनी याचिका में दोनों ने अंग्रेजों को आश्वासन दिया कि वे भविष्य में किसी भी प्रकार का अपराध नहीं करेंगे। यदि उनकी रिहाई का प्रबंध किया जाता है तो वे इसके लिए आभारी होंगे। इसी तरह की याचिकाएं शौकत उस्मान, मुज़फ्फर अहमद, सिंगारवेलु चेट्टियार ने भी भेजी।
(Source: राष्ट्रीय अभिलेख में यहाँ मौजूद है)
बिपिन चन्द्र पाल: बंगाल की राजनीतिक स्थिति पर गृह विभाग के सचिव ने अक्टूबर 1911 में भारत को एक रिपोर्ट भेजी, इस रिपोर्ट में यह बताया गया है कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लाल-बाल-पाल त्रिमूर्ति (लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल) में से एक बिपिन चंद्र पाल बिपिन चंद्र पाल ने अदालत में कहा कि वे राजनीति से संन्यास ले रहे हैं। बिपिन चंद्र पाल की दया की याचना बंगाली प्रेस ने मिश्रित भावनाओं के साथ देखा है।
(Source: राष्ट्रीय अभिलेख में पेज नम्बर 4 पर पढ़िए)
सुब्रह्मण्य भारती: स्वतंत्रता संग्राम में शामिल सेनानी और कवि सुब्रह्मण्य भारती ने 28 नवम्बर 1918 को ब्रिटिश गवर्नर लॉर्ड पेन्टलैंड को एक दया याचिका लिखी। इस याचिका में उन्होंने लिखा कि मुझे कडलूर में गिरफ़्तार किया गया, जब मैं पांडिचेरी से अपने मूल ज़िले तिरुनेलवेली जा रहा था। आपकी अनुमति के साथ मैंने पहले कई बार निष्ठावान आश्वासन दिए थे, जैसा कि आपको स्मरण होगा। कुछ महीने पहले, आपकी सरकार द्वारा उप महानिरीक्षक (सी.आई.डी) को मुझे पांडिचेरी में साक्षात्कार के लिए भेजा गया था। डीआईजी मेरे ब्रिटिश सरकार के प्रति रवैये से संतुष्ट हो गया और मुझसे पूछा कि क्या मैं युद्ध के दौरान केवल दो ज़िलों में नजरबंद रहने के लिए तैयार हूँ। मैंने उस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया क्योंकि मैंने पूरी तरह से राजनीति से संन्यास ले लिया था और मुझे नहीं लगा कि मुझ पर किसी प्रकार की रोक जरूरी है। इसके बाद भी, मैंने कई याचिकाएं प्रस्तुत कीं जिनमें अपनी स्थिति को स्पष्ट किया। मैं पुनः आपको आश्वासन देता हूँ कि मैंने हर प्रकार की राजनीति का त्याग कर दिया है। मैं हमेशा ब्रिटिश सरकार का वफादार और कानून का पालन करने वाला नागरिक रहूंगा। अतः, मैं आपसे हाथ जोड़कर निवेदन करता हूँ कि आप मेरी तत्काल रिहाई का आदेश दें। ईश्वर आपको दीर्घायु और सुखी जीवन दे।
(सुब्रह्मण्य भारती की याचिका तमिल भाषी किताब में पेज 45 से पढ़िए)
बाल गंगाधर तिलक: 30 अप्रैल 1908 को खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चंद चाकी ने जज किंग्सफोर्ड को अपना निशाना बनाते हुए एक बम विस्फोट किया। इसमें दो ब्रिटिश महिलाओं की मौत हो गई थी। अग्रेंजों ने खुदीराम बोस को गिरफ्तार कर उनपर मुकदमा चलाया। इस गिरफ्तारी के बाद बाल गंगाधर तिलक ने क्रांतिकारियों के पक्ष में अपने अखबार ‘केसरी’ में लिखा। उनके इस लेख ने अंग्रेजों के होश उड़ा दिए थे। 3 जुलाई 1908 को अंग्रेजों ने तिलक को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें इसकी 6 साल की सजा मिली। उन्हें बर्मा के मंडले जेल में रखा गया।
वहीं बाल गंगाधर तिलक ने अक्टूबर 1912 की याचिका में 6 साल की साधारण कैद की सजा के बाकी हिस्से को माफ या कुछ राहत की अपील की। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि कई कैदियों को उनकी सजा के 1/3 हिस्से में राहत दी गई थी। तिलक ने अपनी याचिका में लिखा कि तीन विशेष अवसरों महारानी विक्टोरिया की घोषणा की 50वीं वर्षगांठ, राजा के सिंहासन पर अभिषेक, भारत के सम्राट के राज्याभिषेक पर कैदियों के लिए सजा में माफी का प्रावधान किया गया लेकिन पिछले दो दोषों के कारण उन्हें इस लाभ से वंचित कर दिया गया। यदि पूरी सजा माफ नहीं की जा सकती तो अच्छे आचरण के आधार पर कम से कम कुछ राहत दीजिए।
( Source: History of the Freedom Movement in India के पेज नम्बर 278-280 पर पढ़िए)
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लेकर दया याचिकाएं: 1928 में लाला लाजपत राय ने साइमन कमीशन के विरोध में एक प्रदर्शन का नेतृत्व किया था। इस प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने उन पर लाठीचार्ज किया, जिसमें वे गंभीर रूप से घायल हुए और कुछ दिनों बाद उनकी मृत्यु हो गई। लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और अन्य ने मिलकर ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जॉन सांडर्स की हत्या कर दी। हालांकि वे स्कॉट को मारना चाहते थे पर गलती से सांडर्स को गोली मार दी गई। तीनों नौजवानों को ब्रिटिश सरकार द्वारा 23 मार्च 1931 को फाँसी की सजा दी गई।

भारत सरकार के गृह विभाग के वायसराय ने 23 मार्च 1931 को टेलीग्राम में लिखा कि भगत सिंह और अन्य दो को फाँसी की सज़ा पाए व्यक्तियों की दया याचिकाएँ खारिज कर दी गई हैं और फाँसी आज शाम के लिए निर्धारित कर दी गई है। इस बीच उनके दोस्तों ने लाहौर उच्च न्यायालय में अंतिम समय में आवेदन दायर किए हैं, जिनकी आज ही सुनवाई की संभावना है। यदि वे याचिकाएँ खारिज होती हैं तो पूर्व नियोजित व्यवस्था के अनुसार फाँसी दी जाएगी। यदि उच्च न्यायालय निर्णय सुरक्षित रखता है तो फाँसी को स्थगित करना आवश्यक होगा।
कैदियों की रिहाई की एक व्यापक माँग: भारत भर में अंडमान में बंद राजनीतिक कैदियों की रिहाई की एक व्यापक माँग उठी। नेशनल यूनियन ऑफ बॉम्बे ने उनकी रिहाई की माँग को लेकर एक याचिका प्रस्तुत की। इस याचिका पर लगभग 70,000 लोगों ने हस्ताक्षर किए। हालाँकि भारत सरकार को राजनीतिक कैदियों को सामान्य माफी देने के लिए प्रेरित करने वाला मुख्य कारण यह था कि वे सरकार को भारत सरकार अधिनियम 1919 (Government of India Act, 1919) के तहत लागू किए गए नए सुधारों के कार्यान्वयन में आसानी देना चाहते थे। इस निर्णय के परिणामस्वरूप 150 में से 120 कैदियों को या तो रिहा कर दिया गया या फिर उन्हें भारतीय जेलों में स्थानांतरित कर दिया गया। केवल 30 कैदी ही अंडमान में बने रहे। रिहाई के समय हर राजनीतिक कैदी से यह लिखवाया गया कि वे कई वर्षों तक राजनीति और क्रांतिकारी गतिविधियों से दूर रहेंगे। अगर बाद में वे फिर से देशद्रोह के दोषी पाए गए तो उन्हें फिर से अंडमान भेजा जाएगा ताकि वे शेष सजा वहाँ पूरी करें। शुरुआत में अधिकांश राजनीतिक कैदी इस प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर करने को तैयार नहीं थे लेकिन मध्यमार्गी वर्ग विशेष रूप से सावरकर की सलाह और समझाइश के कारण अंततः वे सहमत हो गए।
(Source: ‘Kala Pani History of Andaman & Nicobar Islands, with a Study of Indiaʼs Freedom Struggle’ में पेज नम्बर 102 से पढ़िए)
अप्रैल 1936 में अंडमान से कैदियों की रिहाई की मांग: अप्रैल 1936 में भारत सरकार के गृह सचिव सर हेनरी क्रैक को एक तात्कालिक यात्रा पर अंडमान भेजा गया। अपने ज्ञापन में, कैदियों ने सेलुलर जेल में बंद सभी राजनीतिक कैदियों की रिहाई और उन पर लागू सभी दमनकारी कानूनों और प्रतिबंधों को हटाने की मांग की। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि ये मांगें जनता की आवाज़ हैं। उन्होंने सेलुलर जेल में कठिन बंदी जीवन को उजागर किया और अपने ज्ञापन में राजनीतिक कैदियों के लिए एक अलग श्रेणी बनाने की मांग की। एक दैनिक भत्ता, किताबें, समाचारपत्र, पुस्तकों की खरीद, बैठने की सुविधाएं, व्यायाम, पढ़ाई, और उचित कपड़े जैसी सुविधाएं भी मांगी गईं।
(Source: ‘Kala Pani History of Andaman & Nicobar Islands, with a Study of Indiaʼs Freedom Struggle’ में पेज नम्बर 115 पर पढ़िए)
बाघ अली खान: अंडमान में एक कैदी बाघ ने साल 1940 को याचिका में अपनी रिहाई की मांग की। उन्होंने अपील करते हुए लिखा है कि यदि उसे मुक्त किया जाता है तो वह याचिका स्वीकार करने वाले की लंबी आयु और समृद्धि की कामना करेगा। बाघ ने यह भी कहा है कि वह निर्दोष है और किसी भी अपराध में शामिल नहीं है।
पीर महबूब शाह: पीर महबूब शाह को एक भाषण के मामले में दो साल की सजा सुनाई गयी। उन्होंने जेल में भूख हड़ताल शुरू की। ब्रिटिश सरकार ने पीर महबूब शाह की भूख हड़ताल को एक राजनीतिक चुनौती के रूप में देखा। महबूब ने ब्रिटिश सरकार की शर्ते मानकर अपने भाषण के लिए माफी मांग ली। इसके बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।
( Source: इस सम्बन्ध में ब्रिटिश सरकार के दस्तावेज में पीर महबूब शाह की भूख हड़ताल, गिरफ्तारी और उसके बाद की कानूनी प्रक्रिया का विवरण है।)
सोहन सिंह, गंगा सिंह और साधु सिंह: सोहन सिंह, गंगा सिंह और साधु सिंह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ गतिविधियों ‘Enemy Agents Ordinance’ के तहत फांसी की सजा सुनाई गयी थी। दिसंबर 1944 को तीनों ने अपनी याचिका में खुद को ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार बताया। याचिकाकर्ता ने विनम्रतापूर्वक और बिना शर्त माफी मांगी और भरोसा दिलाया कि वह भविष्य में अच्छे आचरण का पालन करेगा। उसने ब्रिटिश सरकार के प्रति समर्पण और निष्ठा व्यक्त की और कहा कि उसकी पत्नी और बच्चों की स्थिति पर भी विचार किया जाए। इस याचिका के बाद मृत्युदंड की सजा को आजीवन निर्वासन में बदल दिया गया।
( Source: भारत सरकार के अभिलेख में यहाँ पढ़ सकते हैं।)
Your most obedient servant: विनायक दामोदर सावरकर पर आरोप है कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार को अपनी याचिकाओं के अंत में ‘I beg to remain, Sir, Your most obedient servant’ लिखा। कांग्रेस सांसद राहुल गाँधी ने एक प्रेस कांफ्रेस में कहा था कि सावरकर ने अंग्रेजों को चिट्ठी लिखकर कहा कि सर, मैं आपका नौकर रहना चाहता हूं। राहुल गांधी ने सावरकर की अंग्रेजों को लिखी चिट्ठी भी दिखाई। उन्होंने कहा कि यह मेरे लिए सबसे जरूरी डॉक्यूमेंट है। इसमें सावरकर जी की चिट्ठी है, जिसमें उन्होंने अंग्रेजों को लिखा है कि सर, मैं आपका नौकर रहना चाहता हूं। सावरकर जी ने अंग्रेजों की मदद की।
बॉम्बे सरकार के गृह विभाग के उपसचिव डी. ओ फ्लिन ने 6 मई 1926 को विनायक दामोदर सावरकर को एक पत्र भेजा। इस पत्र में डी. ओ फ्लिन ने बताया कि श्रद्धानंद में प्रकाशित आपका एक लेख रिहाई की शर्तों का उल्लंघन करता है। यह आपकी उस प्रतिज्ञा के विपरीत है जिसमें आपने बिना सरकार की अनुमति के किसी भी प्रकार की राजनीतिक गतिविधि में भाग न लेने की बात कही थी। अतः मैं आपसे यह अनुरोध करता हूँ कि भविष्य में आप इस प्रकार के विवादास्पद लेख प्रकाशित करने से परहेज करें।

इस पत्र में ध्यान देने वाली बात है कि डी. ओ फ्लिन ने पत्र के अंत में ‘I have the honour to be, Sir, Your most obedient servant’ लिखा है।
महात्मा गांधी द्वारा 29 अप्रैल 1918 को वायसराय (ब्रिटिश भारत के गवर्नर-जनरल) को एक पत्र लिखा। गाँधी ने पत्र में बताया कि मैं 26 तारीख को होने वाले सम्मेलन में भाग नहीं लूंगा, जैसा कि मैंने अपनी पिछली चिट्ठी में उल्लेख किया था। लेकिन उसके बाद आपने मुझे जो साक्षात्कार (भेंट) देने की कृपा की, उसके परिणामस्वरूप मैं सम्मिलित होने के लिए राज़ी हो गया — यदि किसी अन्य कारण से नहीं, तो केवल आपके प्रति मेरे गहरे सम्मान और स्नेह के कारण।सम्मेलन में भाग न लेने के मेरे कारणों में से एक और शायद सबसे बड़ा कारण यह था कि श्री तिलक, मिसेज़ बेसेन्ट और अली बंधुओं जैसे प्रभावशाली जननेता सम्मेलन में आमंत्रित नहीं किए गए थे। मुझे अब भी लगता है कि उन्हें न बुलाना एक गंभीर भूल थी, और मैं आदरपूर्वक सुझाव देता हूं कि इस त्रुटि की आंशिक पूर्ति की जा सकती है यदि इन नेताओं को प्रांतीय सम्मेलनों में सलाह देने के लिए आमंत्रित किया जाए, जो कि आगे आयोजित किए जाने वाले हैं।

गाँधी ने आगे लिखा कि मैं चाहता हूं कि महामहिम मुसलमान राज्यों को लेकर स्पष्ट आश्वासन दें। मुझे यकीन है कि आप जानते हैं कि हर हिंदू मुसलमानों की पीड़ा को गहराई से महसूस करता है। एक हिंदू होने के नाते, मैं उनके दुखों के प्रति उदासीन नहीं रह सकता। इन राज्यों में पवित्र स्थलों को लेकर मेरा और मुसलमानों का समान सम्मान है, और मुझे आशा है कि भारतीय दृष्टिकोण से इसे उचित और समयबद्ध रूप से सुलझाया जाएगा जिससे होम रूल की भावना को बल मिलेगा।
इसी पत्र के अंत में गाँधी ने लिखा,’मैं यह इसलिए लिख रहा हूं, क्योंकि मैं अंग्रेज़ राष्ट्र से प्रेम करता हूं, और चाहता हूं कि हर भारतीय में अंग्रेज़ों के प्रति निष्ठा जागृत हो। आपका निष्ठावान सेवक, एम के गांधी‘
(Source: The Collected Works of Mahatma Gandhi, Vol. 14, page 377-380)
महात्मा गाँधी ने Lord Ampthill(अक्टूबर 1900 से फरवरी 1906 तक मद्रास के गवर्नर और अप्रैल से दिसंबर 1904 तक भारत के कार्यवाहक वायसराय) को 21 जुलाई 1909 को एक पत्र लिखा। गाँधी ने इस पत्र कर अंत में ‘मैं विनम्रता से बना रहता हूँ, आपका आज्ञाकारी सेवक’ लिखा।

(Source: The Collected Works of Mahatma Gandhi)
बॉम्बे सरकार के गृह विभाग के उपसचिव डी. ओ फ्लिन का विनायक सावरकर को पत्र या महात्मा गाँधी का वायसराय को पत्र.. इन दोनों ही पत्रों के अंत में ‘obedient servant’ लिखा गया। तो क्या यहाँ माना जाए कि ब्रिटिश अधिकारी सावरकार के नौकर थे या महात्मा गांधी ब्रिटिश के नौकर थे? नहीं। असल में जब हम पत्राचार की उस काल की शैली को देखते हैं तो हमें यह समझना आवश्यक है कि ‘Obedient Servant’ या ‘Your Most Obedient Servant’ जैसे शब्द केवल औपचारिक courtesy phrases थे, जो ब्रिटिश प्रशासनिक और औपनिवेशिक शासन की नौकरशाही भाषा का हिस्सा थे। इनका शाब्दिक अर्थ लेकर यह निष्कर्ष निकालना कि कोई किसी का ‘नौकर’ था, ऐतिहासिक सन्दर्भ को नज़रअंदाज़ करना होगा।