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30 May 2025, Fri

विनायक दामोदर सावरकर की याचिकाएं और ब्रिटिश सरकार का जवाब

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर एक अत्यंत विवादास्पद और बहुचर्चित व्यक्तित्व रहे हैं। एक ओर वे क्रांतिकारी राष्ट्रवादी, इतिहासकार और विचारक के रूप में जाने जाते हैं तो दूसरी ओर उन पर कई गंभीर आरोप भी लगाए जाते हैं। अंडमान की कुख्यात सेल्युलर जेल में बंदी रहते हुए ब्रिटिश हुकूमत को भेजे गए उनके ‘क्षमायाचना पत्र’ आज भी इतिहासकारों, राजनेताओं और आम जनता के बीच बहस का विषय हैं। यह लेख सावरकर के पत्रों की पृष्ठभूमि, उनके कारणों, ऐतिहासिक संदर्भों की पड़ताल करता है, इस लेख में सभी प्रमाणिक साक्ष्यों को शामिल किया गया है।

विनायक दामोदर सावरकर और उनके भाई गणेश सावरकर के खिलाफ नासिक के कलेक्टर ए.एम.टी. जैक्सन की हत्या का षड्यंत्र और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह भड़काने के आरोप में राजद्रोह का मुकदमा मुकदमा चला। अदालत ने सजा सुनाते हुए अदालत ने 3 फरवरी 1911 को अपने आदेश में कहा कि गणेश सावरकर और विनायक सावरकर के नेतृत्व में ‘मित्र मेला’ नामक संगठन कार्यरत था। बाद में इसे ‘अभिनव भारत’ के नाम से जाना जाने लगा। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश शासन को समाप्त कर भारत की स्वतंत्रता प्राप्त करना था। इस संगठन की बैठकों में देशभक्तों के जोशीले भाषण होते थे, जिन्हें सावरकर और अन्य व्यक्तियों द्वारा दिया जाता था। सावरकर के इंग्लैण्ड जाने से पूर्व नासिक में उनके सम्मान में एक समारोह हुआ, जिसमें उन्होंने एक भाषण दिया और कहा कि विदेश जाने का मुख्य उद्देश्य भारत की स्वतंत्रता के लिए ऋण चुकाना है। उन्होंने भगवान हनुमान की एक तस्वीर दिखाई, जिसमें वह एक गदा पकड़े थे और उनके पैर के नीचे एक सफेद रंग का दानव दबा हुआ था (संकेत रूप से अंग्रेजों की ओर इशारा किया गया)। इंग्लैंड में सावरकर ‘इंडिया हाउस’ में रहते थे, जहाँ 1907 से 1909 तक भारतीय क्रांतिकारियों का एक महत्वपूर्ण केंद्र बना। उन्होंने उपस्थित लोगों से आग्रह किया कि वे शारीरिक व्यायाम और सैन्य प्रशिक्षण शुरू करें।

अदालत ने अपने आदेश में कहा कि 1909 की शुरुआत में सावरकर ने लंदन से मुंबई बीस ब्राउनिंग पिस्तौलों का एक पार्सल भेजा। नासिक के मिस्टर जैक्सन की हत्या में उन्हीं पिस्तौलों में से एक का इस्तेमाल किया गया, जो सावरकर ने लंदन से भेजी थी। इससे पहले ही खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मुजफ्फरपुर में एक हत्या करने का प्रयास किया था। सावरकर के नेतृत्व में क्रांतिकारी गतिविधियाँ पहले भारत में और बाद में इंग्लैंड में संगठित हुईं। उन्होंने भारत में हथियार भेजे, बम बनाने की किताबें प्रकाशित कीं और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को संगठित करने के लिए ‘इंडिया हाउस’ को क्रांतिकारियों का केंद्र बनाया। सावरकर के जोशीले भाषणों ने उनके अनुयायियों को हिंसक क्रांति के लिए प्रेरित किया।

ब्रिटिश अदालत ने 30 जनवरी 1911 सावरकर को दो आजीवन कारावास और संपत्ति की जब्ती की सजा सुनाई। 25-25 साल की दो सजा थी, ये सजाएं एक साथ नहीं चलनी थी यानी अंग्रेजों ने 28 वर्षीय सावरकर को 50 साल की कैद की सजा सुनाई।

सावरकर को अंडमान के सेलुलर जेल भेज दिया गया। 50 वर्षों की कैद का मतलब था कि सावरकर को दिसंबर 1960 को अंडमान जेल से बाहर आना चाहिए था। सावरकर पर आरोप है कि उन्होंने काला पानी की मानवीय यातना से डरकर अंग्रेजों के समक्ष दया याचिकाएं दायर की और माफी मांगने के बाद ही वह जेल से बाहर आए थे। विनायक दामोदर सावरकर ने अंडमान की सेलुलर जेल जाते ही पहले ही साल 1911 में पहली याचिका दायर की। इसके बाद उन्होंने साल 1913, 1914, 1917, 1920 में याचिकाएं दायर कीं।

विनायक दामोदर सावरकर की साल 1911 की याचिका: विनायक दामोदर सावरकर ने अंडमान की सेलुलर में साल 1911 में पहली याचिका दायर की। हालाँकि सावरकर की साल 2011 की याचिका मौजूद नहीं हैं लेकिन 14 नवंबर 1913 की याचिका में सावरकर ने अपनी पिछली याचिका के बारे में बात की। इससे पता चलता है कि यह उनकी दूसरी याचिका थी।

1913 की याचिका: अक्टूबर 1913 में भारत सरकार के गृह सदस्य रेजिनाल्ड हेनरी क्रैडॉक ने सेलुलर जेल का दौरा किया। इस दौरान उन्होंने विनायक सावरकर समेत कई क्रान्तिकारियों से मुलाकात की। सावरकर ने 14 नवंबर 1913 की याचिका रेजिनाल्ड हेनरी क्रैडॉक को सौंपी थी। इस याचिका में सावरकर ने अन्य कैदियों की तरह कारागार बाहर जाने और परिजनों से पत्र व्यवहार और मुलाकात की अनुमति की मांग की।

साल 1914 की याचिका: जुलाई 1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ। यह युद्ध (फ्रांस, रूस, ग्रेट ब्रिटेन, इटली और संयुक्त राज्य अमेरिका) और (जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी और तुर्की साम्राज्य) के बीच लड़ा गया चूँकि भारत उस समय ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा था इसीलिए इसीलिए भारतीय सैनिक भी इस युद्ध में शामिल हुए। इसी दौरान विनायक सवारकर ने अक्टूबर 1914 में अंडमान के चीफ कमिश्नर को याचिका भेजी। सावरकर ने अपनी इस याचिका में लिखा मैं स्वयं को मौजूदा युद्ध में स्वयंसेवक के तौर पर किसी भी कार्य हेतु प्रस्तुत करता हूं, भारतीय सरकार जैसा चाहे उपयुक्त समझे, मैं जानता हूं कि साम्राज्य मेरे जैसे मामली व्यक्ति की मदद पर निर्भर नहीं, परंतु में जानता हूं कि कोई कितना भी मामूली हो, साम्राज्य की रक्षा के लिए स्वैच्छिक रूप में अपने श्रेष्ठ प्रयास से उत्तरदायी है। मैं यह भी निवेदन करना चाहता है कि राजनीतिक अपराधों के लिए कैद किए गए भारतीय लोगों को रिहा कर उनमें वफादारी की भावना फैलाने एवं सशक्त करने का बेहतर उपाय नहीं हो सकता। यदि सरकार को शंका है कि मैं अपनी रिहाई सुनिश्चित करना चाहता हूं तो मैं कहना चाहूंगा कि मुझे रिहा ना किया जाए, परंतु मेरे बदले में शेष अन्य को छोड़ दिया जाए

साल 1917 की याचिका: सावरकर ने अपनी इस याचिका में ब्रिटिश सरकार को आश्वासन दिया कि यदि उन्हें रिहा किया जाता है, तो वे सरकार के प्रति वफादार रहेंगे और हिंसा का समर्थन नहीं करेंगे। यदि उन्हें छोड़ा जाता है, तो वे समाज सुधार, शिक्षा और अन्य सकारात्मक कार्यों पर ध्यान केंद्रित करेंगे। यदि सरकार को लगता है कि अपनी रिहाई के लिए मैं यह लिख रहा हूं; या यदि माफी देने के लिए मेरा नाम मुख्य अड़चन बनता है तो सरकार मेरा नाम हटाकर शेष सबको रिहा कर दे; वह पहल मुझे अपनी ही रिहाई जितनी संतोषप्रद होगी। यदि सरकार कभी इस प्रश्न पर विचार करती है तो माफीनामा इतना व्यापक होना चाहिए कि उसमें भारतीय प्रवासी भी समाहित रहें और जिन्हें उनकी अपनी ही भूमि में अजनबी मान लिया गया है और वह भारत सरकार के कटु विरोधी हैं, परंतु उनमें से अधिकांश को यदि लौटने की अनुमति मिलती है तो वह मातृभूमि और संवैधानिक सुधारों के हित में काम करना चाहेंगे, जब नया एवं मौलिक संविधान यहां लागू होगा।

साल 1920 की याचिका: सावरकर ने अपनी इस याचिका में ब्रिटिश सरकार द्वारा दी जा रही शाही माफी के दायरे में स्वयं को और अपने भाई को लाने की मांग की। उन्होंने बताया कि बरिन घोष, हेम चंद्र दास और अन्य अभियुक्तों को माफी दी गई थी जबकि उनके खिलाफ आरोप अधिक गंभीर थे। इस आधार पर उन्हें और उनके भाई को भी माफी दी जानी चाहिए। उन्होंने तर्क दिया कि उन्होंने 10-11 वर्षों की कठोर सजा काट ली है जबकि अन्य दोषियों को कम समय में मुक्त कर दिया गया था। सावरकर ने आश्वासन दिया कि रिहाई के बाद वह राजनीति से दूर रहेंगे और किसी भी प्रकार की गतिविधियों में शामिल नहीं होंगे जो ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध हो।

सावरकर की याचिकाएं:

नवम्बर 1913: राष्ट्रीय अभिलेख में यहाँ पेज संख्या 14 पर पढ़िए।

अक्टूबर 1914: राष्ट्रीय अभिलेख में यहाँ मौजूद है।

30 मार्च 1920: History of the Freedom Movement in India’ में 472-476 पेज पर मौजूद है।

विनायक दामोदर सावरकर की साल 1913 की याचिका का जवाब: विनायक सावरकर की इस याचिका के जवाब में क्रेडॉक ने अपनी रिपोर्ट भारत वापसी के दौरान जहाज़ पर लिखी जिसमें उसने लिखा कि सावरकर को अपने कार्यों को लेकर ‘कोई अफसोस या पछतावा है, यह कहा नहीं जा सकता है।’ क्रेडॉक ने आगे लिखा कि सावरकर के मामले में, उसे यहाँ कोई भी स्वतंत्रता देना बिल्कुल असंभव है, और मेरा मानना है कि वह भारत की किसी भी जेल से भाग जाएगा। वह इतना महत्वपूर्ण नेता है कि भारतीय अराजकतावादियों का यूरोपीय धड़ा उसकी फरारी की योजना बनाएगा, जो जल्द ही संगठित हो जाएगी। यदि उसे अंडमान की सेल्युलर जेल से बाहर अनुमति दी गई, तो उसका भाग जाना निश्चित है। उसके मित्र आसानी से एक स्टीमर (जहाज़) किराए पर ले सकते हैं, जिसे किसी द्वीप के पास खड़ा किया जा सकता है, और स्थानीय रूप से थोड़े पैसे बाँट देना बाकी काम पूरा कर देगा।

Craddock की रिपोर्ट

सावरकर की 1914 की याचिका पर ब्रिटिश सरकार का जवाब: अंडमान में कैदी वीडी सावरकर ने ब्रिटिश सरकार को एक याचिका भेजी, जिसमें उन्होंने अपनी सेवाएं देने और भारत के सभी राजनीतिक कैदियों के लिए आम माफी की अपील की। हालांकि कुछ कैदी सरकार के खिलाफ षड्यंत्र रच सकते हैं, हथियार चुरा सकते हैं और देशविरोधी पर्चे बांट सकते हैं। भारत में देशद्रोही आंदोलन समाप्त नहीं हुआ है और यह याचिका निश्चित रूप से वर्तमान स्थिति का लाभ उठाने की प्रवृत्ति है ताकि अराजकतावादी गतिविधियों के क्षेत्र को बढ़ाया जा सके और अशांति की ताकतों को आकर्षित किया जा सके, जो दूर पूर्व (Far East) से लौटे सिख प्रवासी, पैन-इस्लामवादी (Pan-Islamists) और अन्य असंतुष्ट व्यक्तियों से जुड़े हों। इसलिए सरकार ने निर्णय लिया कि सावरकर की याचिका पर कोई विचार नहीं किया जाएगा और उन्हें अनौपचारिक रूप से याचिका रद्द होने की जानकारी दे दी जाएगी।

सावरकर खतरनाक है: पोर्ट ब्लेयर के अधीक्षक जे. होप सिम्पसन ने ब्रिटिश सरकार(उस वक्त की भारत सरकार) के गृह सचिव को 15 मई 1914 को एक पत्र में बताया कि विनायक दामोदर सावरकर सबसे अधिक गंभीर अपराधी है, वह इस समूह का नेता है और अन्य कैदी उसका अनुसरण करते हैं।

(राष्ट्रीय अभिलेख में यहाँ पेज 14 पर पढ़िए)

साल 1919 में विनायक सावरकर और उनके भाई गणेश सावरकर के व्यवहार के सम्बन्ध में ब्रिटिश सरकार: गणेश सावरकर का व्यवहार 1914 तक खराब था और उसे अक्सर मुख्यतः काम करने से इनकार करने और निषिद्ध वस्तुओं के कब्जे के लिए सजा दी जाती थी। पिछले 5 वर्षों में उसका आचरण बहुत अच्छा रहा है, उसकी एकमात्र गलती नवंबर 1917 में एक मामूली थी जिसके लिए उसे चेतावनी दी गई थी। उसका वर्तमान दृष्टिकोण अधिकार के प्रति समर्पण का है लेकिन उसने कभी जेल के कार्य में मदद करने की कोई प्रवृत्ति नहीं दिखाई है जैसा कि तीन बंगालियों ने किया है। वह उसे दी गई रस्सी बनाने की हल्की मेहनत का कार्य करता है और अपना बाकी समय पढ़ने में बिताता है। वह मिलनसार नहीं है और इसलिए मुझे इस बात का कोई ज्ञान नहीं है कि उसने अपने पूर्व राजनीतिक विचारों को त्याग दिया है या नहीं।

History of the Freedom Movement in India

विनायक दामोदर सावरकर को 1912, 1913 और 1914 के दौरान 8 बार काम करने और निषिद्ध वस्तुओं के कब्जे से इनकार करने के लिए दंडित किया गया। पिछले 5 वर्षों से उसका व्यवहार बहुत अच्छा रहा है। वह हमेशा विनम्र और शिष्ट होता है लेकिन अपने भाई की तरह उसने कभी सरकार की सक्रिय रूप से सहायता करने की कोई प्रवृत्ति नहीं दिखाई। वर्तमान समय में यह कहना असंभव है कि उसके वास्तविक राजनीतिक विचार क्या हैं।

शाही माफी नही मिली: 4 जून 1919 को बॉम्बे सरकार ने पोर्ट ब्लेयर के अधीक्षक को अपने एक टेलीग्राम में बताया कि राजनैतिक कैदियों को शाही माफी दी जाएगी लेकिन सावरकर बंधुओं जैसे क्रांतिकारियों को इस माफी से बाहर रखा गया।

इसके बाद 24 दिसंबर 1919 को शाही माफी की आधिकारिक घोषणा कर दी गयी लेकिन विनायक दामोदर सावरकर और उनके भाई गणेश सावरकर को रिहा नहीं किया गया। टेलीग्राम में बताया गया कि सावरकर भाई नासिक क्रांतिकारी समाज के नेता रहे हैं और खतरनाक षड्यंत्रकारी हैं।

बॉम्बे काउंसिल की विधान परिषद में डी. वी. बेलवी ने शाही घोषणा में सावरकर बंधुओं को क्षमादान न मिलने पर सवाल उठाया।

1920 की याचिका पर ब्रिटिश सरकार का जवाब: वीडी सावरकर ने अपनी और अपने भाई की रिहाई के लिए क्षमादान की मांग की थी लेकिन ब्रिटिश सरकार उन्हें क्षमादान का लाभ देने के लिए तैयार नहीं हैं। ब्रिटिश सरकार ने अपने जवाब में कहा कि बरिंद्र कुमार घोष और अन्य क्रांतिकारी मुक्त कर दिए गए हैं इसलिए गणेश सावरकर की रिहाई पर पुनर्विचार का कोई आधार नहीं है। हालिया रिपोर्टों के अनुसार बरिंद्र घोष की गतिविधियाँ सरकार को यह विश्वास दिलाने में असफल रही हैं कि इस प्रकार के अपराधियों को आम माफी देना किसी भी तरह से उचित है। पर्याप्त गारंटी के बिना रिहाई के संबंध में सरकार का मानना है कि ऐसे मामलों में रिहाई बेकार है।

बम्बई सरकार ने 29 फरवरी 1921 अपने एक जवाब में बताया कि वो सावरकर बंधुओं को बंबई प्रेसीडेंसी की किसी जेल में स्थानांतरित करने के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि इससे उनके पक्ष में आंदोलन की पुनरुत्थान की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

सावरकर की याचिका पर ब्रिटिश अधिकारियों का जवाब: इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में सावरकर बंधुओं की रिहाई के संबंध में सवाल पर ब्रिटिश अधिकारी एच. मैकफर्सन (H. McPherson) और डब्ल्यू.एच. विंसेंट (W.H. Vincent) ने सावरकर बंधुओं को ‘बहुत खतरनाक व्यक्ति’ करार दिया। विशेष रूप से विनायक दामोदर सावरकर को दोनों भाइयों में अधिक खतरनाक बताया।

अंडमान से बॉम्बे प्रेसीडेंसी की जेल में भेजा गया: सावरकर की तमाम याचिकाओं के बावजूद उन्हें ब्रिटिश सरकार ने उन्हें पूरी तरह रिहा नहीं किया बल्कि मार्च 1921 में विनायक दामोदर सावरकर और उनके भाई गणेश दामोदर सावरकर को बॉम्बे प्रेसीडेंसी की येरवड़ा केंद्रीय कारागार में भेज दिया गया।

1924 में सशर्त रिहा हुए सावरकर: विनायक सावरकर को 4 जनवरी 1924 में बॉम्बे प्रेसीडेंसी में येरवड़ा केंद्रीय कारागार से सशर्त रिहा कर दिया गया। उन्हें यह रिहाई ब्रिटिश सरकार द्वारा कुछ शर्तों के साथ दी गई थी। इन शर्तों में सावरकर को कहा गया था कि वो रत्नागिरी जिले की सीमाओं से बाहर नहीं जाएंगे, न ही वे राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेंगे। अगर वो शर्तों का उल्लंघन करते हैं तो वापस जेल भेज दिया जाएगा। यह प्रतिबन्ध अगले 5 वर्षों की अवधि के लिए लागू होंगे।

(Source: ब्रिटिश सरकार के गृह विभाग के अभिलेख यहाँ मौजूद हैं)

1929 में प्रतिबन्ध जारी रहा: बॉम्बे प्रेसीडेंसी की जेल से रिहा होने के बाद विनायक दामोदर को 5 वर्षों के लिए कुछ प्रतिबन्ध के साथ रत्नागिरी में नजरबंद किया गया था हालाँकि पांच साल बीतने के बाद भी ब्रिटिश सरकार ने इस प्रतिबन्ध को नहीं हटाया। बॉम्बे सरकार के सचिव ने दिसम्बर 30 दिसम्बर 1929 को रत्नागिरी के जिलाधिकारी को एक पत्र लिखकर बताया कि सरकार इस प्रतिबंध को अगले दो वर्षों के लिए फिर से बढ़ा रही है। इसको लेकर सावरकर को 4 जनवरी 1929 से पहले सूचित कर दीजिए।

बॉम्बे सरकार के गृह विभाग के सचिव का पत्र

(बॉम्बे सरकार के सचिव का पत्र राष्ट्रीय अभिलेख में यहाँ पढ़िए)

1932 में नहीं हटा प्रतिबन्ध: विनायक दामोदर सावरकर को बॉम्बे प्रेसीडेंसी में येरवड़ा केंद्रीय कारागार से जनवरी 1924 में पांच वर्षों के प्रतिबन्ध के साथ रिहा किया गया लेकिन इस प्रतिबन्ध को पांच साल बाद नहीं हटाया गया। साल 1929 में ब्रिटिश सरकार ने अपने नए आदेश में इस प्रतिबंध को दो साल के लिए बढ़ा दिया।

इसके बाद 22 दिसम्बर 1932 को बॉम्बे सरकार के गृह सचिव ने रत्नागिरी के जिला मजिस्ट्रेट को पत्र लिखकर बताया कि सावरकर का व्यवहार पिछले दो वर्षों में पूरी तरह से संतोषजनक नहीं रहा है, सरकार इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि इन प्रतिबंधों को हटाना सार्वजनिक शांति के हित में नहीं होगा। अतः दोनों शर्तों को 4 जनवरी 1933 से और दो वर्षों की अवधि के लिए नवीनीकृत किया जाता है।

बॉम्बे सरकार के गृह विभाग के सचिव का पत्र

(Source: बॉम्बे सरकार के गृह विभाग के सचिव का पत्र राष्ट्रीय अभिलेख में यहाँ मौजूद है)

साल 1934 में गिरफ्तार हुए सावरकर: बॉम्बे सरकार के गृह विभाग के सचिव आरएम मैक्सवेल ने ‘भारत में राजनीतिक स्थिति पर स्थानीय सरकारों और प्रशासन की रिपोर्ट’ में मई 2021 में भारत सरकार को बताया कि विनायक दामोदर सावरकर को बॉम्बे विशेष (आपातकालीन) शक्तियाँ अधिनियम 1932 के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया है क्योंकि उन्हें संदेह था कि वे उन दो व्यक्तियों की गतिविधियों से जुड़े हैं जो हाल में गिरफ्तार हुए थे। जांच में यह संकेत मिला कि ये दोनों व्यक्ति इंग्लैंड में ‘सब-कंडक्टर स्वीटनल’ की हत्या की कोशिश में शामिल थे। सब-कंडक्टर स्वीटनल पर हुए हमले के संदर्भ में प्रकाशित समाचारों में कहा गया कि सावरकर के घर से प्राप्त कुछ पत्रों से भारत भर में किए गए क्रांतिकारी कार्यों की जानकारी मिलती है। हालांकि, अब तक ऐसा कोई प्रत्यक्ष प्रमाण सामने नहीं आया है जो यह सिद्ध करे कि उन्होंने खुद कोई अपराध किया है। इसलिए, उनके खिलाफ कार्रवाई को बढ़ाने के लिए उनके हिरासत की अवधि बढ़ाने का प्रस्ताव रखा गया है।

(Source: बॉम्बे सरकार के गृह विभाग के सचिव का पत्र राष्ट्रीय अभिलेख में यहाँ पढ़िए)

1935 में भी जारी रहा प्रतिबंध: बॉम्बे सरकार में गृह विभाग सचिव आरएम मैक्सवेल ने 7 दिसम्बर 1934 को रत्नागिरी के जिला मजिस्ट्रेट को एक और पत्र भेजकर बताया कि विनायक सावरकर पर रत्नागिरी में नजरबंदी के दौरान लगाए गए प्रतिबन्ध को नहीं हटाया जाएगा। सचिव ने लिखा कि गवर्नर-इन-काउंसिल ने एक बार फिर से इन प्रतिबंधों को हटाने के प्रश्न पर गहन विचार किया है लेकिन सावरकर का पिछले दो वर्षों का आचरण पूरी तरह से संतोषजनक नहीं रहा है, इसीलिए इन प्रतिबंधों को समाप्त करना सार्वजानिक शांति के हित में नहीं है। इसलिए यह निर्णय लिया गया है कि ये शर्तें 4 जनवरी 1935 से आगे फिर दो वर्षों के लिए लागू रहनी चाहिए और उस अवधि की समाप्ति से पहले इस प्रश्न की पुनः समीक्षा की जाए।

बॉम्बे सरकार के गृह विभाग के सचिव का पत्र

(Source: राष्ट्रीय अभिलेख में यहाँ पढ़िए)

विनायक दामोदर सावरकर की याचिकाओं पर ब्रिटिश सरकार के जवाब से यह तो स्पष्ट है कि उन्हें हमेशा से संदेह की निगाह से देखा गया। ब्रिटिश उनकी दलीलों पर विश्वास नहीं करते थे, उन्हें शाही माफ़ी का लाभ भी नहीं मिला। साथ ही उनकी तमाम याचिकाओं के बाद भी उन्हें पूरी तरह रिहा नहीं किया। अंडमान की सेल्युलर जेल से उन्हें बंबई प्रेसीडेंसी की जेल में डाल दिया गया। इसके बाद उन्हें महाराष्ट्र के रत्नागिरी में नजरबंद कर दिया। यहाँ पर भी उन पर तमाम प्रतिबन्ध लगाये गए। जिन्हें बार बार जारी रखा गया।

सवाल यह भी कि ब्रिटिश सरकार के समक्ष क्या एकमात्र विनायक दामोदर सावरकर ने याचिकाएं दाखिल की? क्या इस तरह की याचिकाएं दाखिल करना आम बात थी? इस श्रंखला का अगला लेख भी जरुर पढ़ें।

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