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1 Jun 2025, Sun

विनायक दामोदर सावरकर: द्विराष्ट्र सिद्धांत की एक पड़ताल

26 फरवरी, 1966 को अपनी मृत्यु के कई दशकों बाद भी भारतीय राजनीति में विनायक दामोदर सावरकर चर्चा का विषय हैं। वे भारतीय राष्ट्रवाद के एक ऐसे विचारक थे, जिनके विचारों ने भारतीय राजनीति, विशेष रूप से दक्षिणपंथी राजनीति पर गहरा प्रभाव डाला। हालाँकि विनायक सावरकर को कई लोग भारत विभाजन का एक प्रमुख जिम्मेदार मानते हैं और उन पर ‘द्विराष्ट्र सिद्धांत’ की नींव रखने का आरोप लगाया जाता है। आज हम अपनी इस रिपोर्ट में ‘दिराष्ट्र सिद्दांत’ की पड़ताल कर रहे हैं।

एक इतिहासकार अशोक कुमार पाण्डेय ने एक्स पर पोस्ट कर लिखा, ‘आज सावरकर की बात करते हैं। क्या आप जानते हैं कि सावरकर ने हिंदू महासभा के अहमदाबाद अधिवेशन में सबसे पहले कहा था कि भारत में दो राष्ट्र हैं। एक हिंदू और एक मुस्लिम। इस तरह विभाजन की सबसे पहले बात करने वालों में से एक थे सावरकर। जिन्होंने खुद को वीर की उपाधि दी थी।’

अशोक कुमार पाण्डेय ने एक और पोस्ट में लिखा, ‘यह बात सुनने में भले अजीब लगे लेकिन एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के सवाल पर जिन्ना और सावरकर के विचार एकदम एक जैसे हैं। सावरकर मानते हैं कि मुस्लिम अलग राष्ट्र हैं।- डॉक्टर अम्बेडकर पेज 131, पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’

अशोक कुमार पाण्डेय ने एक पोस्ट के जवाब में लिखा है, ‘1937 में हिन्दू महासभा के अध्यक्षीय उद्बोधन में ही सावरकर कह चुके थे कि हिन्दू और मुस्लिम दो राष्ट्र हैं। असल में दो राष्ट्रों के सिद्धांत के जनक सावरकर ही हैं और इस रूप में देश के बंटवारे के प्रमुख जिम्मेदार।’

इस पोस्ट में ‘हिस्ट्री सेल’ ने लिखा, ‘जिसमे लिखा गया है कि 15 अगस्त 1943 को एक पत्रकार सम्मेलन में सावरकर ने कहा– “मुझे जिन्ना के द्विराष्ट्र के सिद्धांत से कोई झगड़ा नहीं है। हम हिंदू लोग अपने आप में एक राष्ट्र हैं और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिंदू और मुसलमान दो हैं।’

हिस्ट्री सेल ने एक पोस्ट में लिखा है, ‘स्वतंत्रता- पूर्व भारत में सांप्रदायिक राजनीति के सजग प्रेक्षक और आलोचकभीमराव अम्बेडकर ने हिन्दू और मुसलमान साम्प्रदायिकता के एक ही तरह केउद्देश्यों को रेखांकित करते हुए कहा- “यह बात सुनने में भले ही विचित्रलगे, पर एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के प्रश्न पर सावरकर और जिन्ना केविचार परस्पर विरोधी होने के बावजूद एक दूसरे से मेल खाते हैं। दोनों ही इसबात को स्वीकार करते हैं, और न केवल स्वीकार करते, बल्कि, इस बात पर जोरदेते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं एक मुसलमान राष्ट्र है और एक हिन्दूराष्ट्र। उनमें मतभेद केवल इस बात पर है कि इन दोनों राष्ट्रों को किनशर्तों और आधारों पर रहना चाहिए।”स्रोत: [बी. आर. अम्बेडकर, पाकिस्तान और दपार्टिशन ऑफ़ इंडिया, (1946, बंबई), पृष्ठ 142]’

क्या है हकीकत? द्विराष्ट्र सिद्धांत का मूल विचार यह था कि भारत में हिंदू और मुस्लिम दो अलग-अलग ‘राष्ट्र’ हैं, जिनकी संस्कृति, धर्म, सामाजिक व्यवहार और ऐतिहासिक परंपराएँ एक-दूसरे से भिन्न हैं। इस विचार के अनुसार, एक साझा राजनीतिक व्यवस्था में इन दोनों समुदायों की समानता और एकता संभव नहीं है। इसलिए उन्हें अलग-अलग देश बनाने चाहिए।

अशोक कुमार पाण्डेय और हिस्ट्री सेल ने अपने पोस्ट में डॉ. बीआर अम्बेडकर की किताब ‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’ का जिक्र किया है, दोनों ने इसी किताब से सावरकर के दिराष्ट्र सिद्धांत की बात कही है इसीलिए हमने इस किताब के पन्नों को खंगाला।

डॉ. बीआर अम्बेडकर की किताब ‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’ के मुताबिक साल 1937 में हिंदूमहासभा के अधिवेशन में सावरकर ने कहा, ‘कई बचकाने राजनीतिज्ञ यह मानने की गंभीर गलती करते हैं कि हिंदुस्तान पहले से ही एक समन्वयवादी राष्ट्र के ढांचे में ढल चुका है या इच्छा होते ही इसे एक समन्वयवादी राष्ट्र बनाया जा सकता है। हमारे ये सदाशयी किंतु जविवेकी मित्र यथार्थ के स्वप्नद्रष्टा हैं। इसीलिए वे सांप्रदायिक झगड़ों से अधीर होते रहते हैं और उनका दोष सांप्रदायिक संगठनों पर डाल देते हैं। परंतु ठोस तथ्य यह है कि ये तथाकथित सांप्रदायिक प्रश्न हमें हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सदियों पुराने सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय टकराव के फलस्वरूप विरासत में मिले हैं। सही समय आने पर आप उन्हें हल कर सकेंगे, परंतु उन्हें स्वीकारने से इनकार करके आप उन्हें दबा नहीं सकते। किसी पुरानी, गहरी जड़वाली बीमारी की उपेक्षा करने की जगह उसका निदान और उपचार करना बेहतर होता है। हमें अप्रिय तथ्यों का बहादुरी से सामना करना चाहिए। आज हिंदुस्तान को ‘एकात्मक और समजातीय राष्ट्र नहीं कहा जा सकता बल्कि इसके विपरीत यहां हिंदू और मुस्लिम दो प्रमुख राष्ट्र हैं।

डॉ. अम्बेडकर ने अपनी किताब में सावरकर के दिसम्बर 1939 में हिंदूमहासभा केकलकत्ता अधिवेशन में दिए गए भाषण का जिक्र भी किया है। सावरकर कहते हैं, ‘जब हिंदू महासभा एक बार ‘एक व्यक्ति एक वोट’ के सिद्धांत को न केवल स्वीकार कर ले बल्कि उस पर टिकी रहे और सरकारी नौकरियां केवल योग्यता केआधार पर दी जायें और इस बात को बुनियादी अधिकारों और दायित्वों में शामिल कर लिया जाये जो सभी नागरिकों पर बिना धर्म या जाति का विचार किए लागू होंगी, तब सिद्धांतत: अल्पसंख्यकों के अधिकारों का उल्लेख करना न केवल अनावश्यक है, बल्कि परस्पर विरोधी भी है क्योंकि इसमें पुनः सांप्रदायिक आधार पर बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक होने की बात उठ जाती है। परंतु जैसा कि व्यावहारिक राजनीति की जरूरत है, और चूंकि हिंदू संगठनवादी यह नहीं चाहते कि गैर-हिंदुओं में संदेह का एक कतरा भी रहे, अत: हम इस बात पर जोर देने को तैयार हैं कि अल्पसंख्यकों के धार्मिक, सांस्कृतिक और भाषायी वैध अधिकारों की स्पष्ट रूप से गारंटी दी जाएगी, केवल एक शर्त पर कि बहुसंख्यकों के समान अधिकारों में भी किसी किस्म का हस्तक्षेप या कमी न की जाए। हर अल्पसंख्यक वर्ग अपनी भाषा, अपने धर्म और संस्कृति की शिक्षा देने के लिएअलग स्कूल खोल सकता है और इनके लिए सरकारी सहायता भी प्राप्त कर सकता है–परतु सदा केवल उस अनुपात में जिसमें वे संरकारी खजाने में कर के रूप में धन जमा करते हों। वस्तुतः यही सिद्धांत बहुसंख्यकों पर भी लागू होना चाहिए।’

सावरकर आगे कहते हैं, ‘इन सबके अतिरिक्त, यदि संविधान संयुक्त निर्वाचक मंडलों पर आधारित नहीं है और ‘एक व्यक्ति एक वोट’ के विशुद्ध राष्ट्रीय सिद्धांत पर आधारित नहीं है, तब जो अल्पसंख्यक वर्ग पृथक निर्वाचक मंडल या सुरक्षित सीटें चाहता है, उसे उसकी अनुमति दी जा सकती है, परंतु सदैव उनकी जनसंख्या के अनुपात में ही, बशर्ते उससे बहुसंख्यक भी जनसंख्या में अपने अनुपात के आधार पर समान अधिकार से वंचित न हो जाएं।’

सावरकर अपने भाषण में कहते हैं, ‘हिंदुस्तान में मुस्लिम अल्पसंख्यकों को यह अधिकार होगा कि उन्हें समान नागरिक समझा ज़ाए और उन्हें अपनी जनसंख्या के अनुपात में समान संरक्षण और नागरिक अधिकार प्राप्त हों । हिंदू बहुसंख्यक किसी भी गैर-हिंदू अल्पसंख्यक के वैध अधिकारों में ‘हस्तक्षेप नहीं करेंगे। परंतु बहुसंख्यक किसी भी दशा में अपना वह अधिकार नहीं छोड़ेंगे, जो किसी भी लोकतांत्रिक और वैध संविधान में बहुसंख्यक होने के नाते उन्हें मिलने चाहिए। विशेषकर मुस्लिम अल्पसंख्यकों ने अल्पसंख्यक रहकर हिंदुओं पर कोई उपकार नहीं किया है और इसलिए जब उन्हें उनके अनुपात में नागरिक और राजनीतिक अधिकारों का वैध हिस्सा मिल जाता है, तो उन्हें अपनी उस स्थिति से संतुष्ट रहना चाहिए। यह बात तो एकदम हास्यास्पद होगी कि मुस्लिम अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों के वाजिब अधिकारों पर भी व्यवहारत: वीटो का अधिकार दे दिया जाए और उसे ‘स्वराज्य’ कहा जाए। हिंदू केवल मालिकों में परिवर्तन नहीं चाहते, वे अपना युद्ध और संघर्ष और मृत्यु का वरण केवल इसलिए नहीं कर रहे कि एडवर्ड की जगह औरंगजेब महज इस आधार पर ले ले कि वह हिंदुस्तानी सीमाओं में पैदा हुआ है; बल्कि वे तो अपनी भूमि में अपने घर के मालिक स्वयं बनना चाहते हैं।’” ‘

सावरकर के इन्ही भाषणों का उल्लेख करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने अपनी किताब में लिखा है, ‘यह बात सुनने में भले ही विचित्र लगे पर एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र ये प्रश्न पर श्री सावरकर और श्री जिन्ना के विचार परस्पर विरोधी होने के बजाय एक-दूसरे से पूरी तरह मेल खाते हैं। दोनों ही इस बात को स्वीकार करते हैं और न केवल स्वीकार करते हैं बल्कि इस बात पर जोर देते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं: एक मुस्लिम राष्ट्र और एक हिंदू राष्ट्र। सावरकर और जिन्ना में मतभेद केवल इस बात पर है कि इन दोनों राष्ट्रों को किन शर्तों पर एक दूसरे के साथ रहना चाहिए। जिन्ना कहते हैं कि हिंदुस्तान के दो टुकड़े कर देने चाहिए, पाकिस्तान और हिंदुस्तान। मुस्लिम कौम पाकिस्तान में रहे और हिंदू कौम हिंदूस्तान में जबकि दूसरी ओर श्री सावरकर इस बात पर जोर देते हैं कि यद्यपि भारत में दो राष्ट्र हैं, परंतु हिंदुस्तान को दो भागों में – एक मुस्लिमों के लिए और दूसरा हिंदुओ के लिए- नहीं बाँटा जाएगा। ये दोनों कौमें एक ही देश में रहेंगी और एक ही संविधान के अंतर्गत रहेंगी। यह संविधान ऐसा होगा जिसमें हिंदू राष्ट्र को वह वर्चस्व मिले जिसका वह अधिकारी है और मुस्लिम राष्ट्र को हिंदू राष्ट्र के अधीनस्थ सहयोग की भावना से रहना होगा। राजनीतिक सत्ता के लिए इन दोनों राष्ट्रों के बीच चल रहे संघर्ष में श्री सावरकर सबके लिए, चाहे वह हिंदू हो या मुस्लिम, ‘एक व्यक्ति-एक वोट’ का नियम चाहते हैं। इस योजना में मुस्लिम को ऐसा कोई लाभ नहीं मिलता, जो हिंदू को न मिलता हो। अल्पसंख्यकों को उनका न्यायोचित अधिकार न देकर उन्हें दंडित करना न्यायोचित नहीं है। राज्य मुस्लिमों को इस बात की गारंटी देगा कि मुस्लिम धर्म और मुस्लिम संस्कृति के अनुसार उन्हें राजनीतिक सत्ता मिले । परंतु राज्य उन्हें विधान सभा और प्रशासन में सीटों और नौकरियों की गारंटी नहीं देगा। यदि मुस्लिम ऐसी गारंटी मांगने पर जोर देंगे तो गारंटी का कोटा देश की जनसंख्या में उनके अनुपात से अधिक नहीं होगा।’

डॉ. अम्बेडकर आगे लिखते हैं, ‘पाकिस्तान के बारे में श्री सावरकर का विकल्प अधिक स्पष्ट, साहसपूर्ण और निर्णायक है, जो अल्पसंख्यकों के अधिकारों के बार में कांग्रेस की अनियमित, अस्पष्ट और अनिश्चित घोषणाओं से बिल्कुल भिन्न लगता है। श्री सावरकर की योजना में कम से कम यह विशेषता तो है ही कि उसमें मुस्लिमों को बता दिया गया है कि उन्हें इससे अधिक और कुछ नहीं मिलेगा। मुस्लिमों को यह पता है कि हिंदू महासभा की दृष्टि में उनकी क्या स्थिति है। दूसरी ओर, कांग्रेस के साथ मुसलमानों को यह पता ही नहीं होता कि उनकी क्या स्थिति है क्योंकि कांग्रेस मुस्लिमों और अल्पसंख्यकों के प्रश्न पर दोहरी नीति नहीं तो कम से कम कूटनीति अवश्य अपना रही है।’

इतिहासकार डॉ विक्रम संपत ने सावरकर पर दो खंड में लिखी अपनी किताब में सावरकर के ‘हिंदू राष्ट्र दर्शन’ के हवाले से उनके भाषणों का उल्लेख किया है। हिंदू महासभा के अधिवेशन में ही सावरकर कहते हैं, ‘भारतीय राज्य पूरी तरह भारतीय रहे। यह धर्म तथा वर्ण के चलते किसी के साथ मताधिकार, जनसेवाओं, दफ्तरों, कर प्रणाली के आधार पर द्वेशपूर्ण भेदभाव न करे। किसी व्यक्ति के साथ हिन्दू या मुस्लिम, ईसाई या यहूदी की पहचान न थोपी जाए। सभी भारतीय नागरिकों का आमजन के बीच उनके धर्म या जातीय प्रतिशत की बजाय उनकी वैयक्तिक क्षमता के आधार पर आकलन हो। भारतीय राज्य की भाषा और लिपि राष्ट्रीय भाषा और लिपि हो जिसे बहुसंख्यक समझते हैं, जैसा कि दुनिया के प्रत्येक देश में होता है, उदाहरणार्थ, इंग्लैंड या संयुक्त राज्य अमेरिका में और धार्मिक पूर्वग्रह के आधार पर किसी दूषित संकरण को भाषा या लिपि से छेड़छाड़ की अनुमति न हो। जाति या समुदाय, वर्ण या धर्म से इतर ‘एक व्यक्ति एक वोट’ आम सिद्धांत रहे। यदि ऐसे भारतीय राज्य को दिमाग में रखकर चला जाए तो हिन्दू संगठनवादी स्वयं हिन्दू संगठन के लिए सर्वप्रथम अपनी पूर्ण वफादारी इसके साथ रखेंगे। मैंने, और मेरे जैसे हज़ारों महासभावादियों ने अपने राजनीतिक करियर के आरंभ से ऐसे भारतीय राज्य को अपना राजनीतिक लक्ष्य माना है और उसकी संपूर्णता के लिए जीवन के अंत तक कार्य करते रहेंगे। क्या भारतीय राज्य के कोई विचार इससे अधिक राष्ट्रीय हो सकता है?  न्याय की पुकार है कि भारतीय राज्य के संदर्भ में मुझे हिंदू महासभा के लक्ष्य और नीतियों को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मौजूदा नीतियों से बढ़कर राष्ट्रीय बताना होगा।’

सावरकर ने कहा, ‘हिंदू राष्ट्र किसी समुदाय के वैध अधिकारों का हनन नहीं करना चाहता। यह केवल संख्या के आधार पर किसी बहुसंख्यक समाज को पक्षपात सुविधाएँ और विशेष हक देने की पैरवी नहीं करता। इसी तरह यह किसी अल्पसंख्यक समुदाय को बहुसंख्यक समुदाय के बरक्स पक्षपात व्यवहार, महत्व और विशेष सुविधाएँ देने का विरोध करता है। हिंदू उन सबको सुनिश्चित कर देना चाहते हैं कि हमे किसी से नफरत नहीं हैं, न ही मुस्लिम, न ही ईसाई, न ही बाहरियों से, परन्तु हम ध्यान रहेंगे कि इनमे से कोई भी हिंदुओ से नफरत न करे और उन्हें नीचा न दिखाए।’

सावरकर ने 1939 में कलकत्ता में हिंदू महासभा के वार्षिक सत्र में कहा, ‘हमारे देशवासियों को छोटी सी भी शंका से मुक्त कराना है… कि धर्म, संस्कृति और भाषा के संबंध में अल्पसंख्यकों के जायज़ अधिकारों को सुनिश्चित किया जाएगा। इस शर्त पर कि बहुसंख्यकों के समान अधिकारों का किसी भी स्थिति में अतिक्रमण या निराकरण नहीं किया जाएंगा। प्रत्येक अल्पसंख्यक को अपने बच्चों को अपनी जुबान, अपने धार्मिक या सांस्कृतिक संस्थानों में प्रशिक्षण दिलाने का हक होगा और इसके लिए सरकारी मदद भी मिल सकती है। परन्तु  यह केवल उनके द्वारा राजकोश में अदा किये गए कर के अनुपात में होगी। बेशक यही सिद्दांत बहुसंख्यक वर्ग के मामले में भी लागू होगा।’

विक्रम संपत ने अपनी किताब में बताया है कि 15 अगस्त 1943 को एक समाचार पत्र में सावरकर के हवाले से वक्तव्य ‘जिन्ना के दिराष्ट्र सिद्दांत से मेरा कोई मतभेद नहीं। हम हिंदू, अपने आप में एकराष्ट्र हैं और यह ऐतिहासिक तथ्य है कि हिंदू एवं मुस्लिम दो राष्ट्र हैं’ प्रकाशित किया गया। इसके जवाब में 19 अगस्त को सावरकर ने दैनिक काल में स्पष्ट किया कि जान-बूझकर या स्थानाभाव के कारण छापा गया है कि वह जिन्ना के दिराष्ट्र सिद्दांत को सहयोग करते हैं। दुनिया भर के मुस्लिमों ने खुद को खलीफा के अधीन खुद कोधार्मिक राज्य माना है और इसी आधार उनका विश्वास है कि मुस्लिम खुद को अलगराष्ट्र समझते हैं। परन्तु हकीकत यह है कि राजनीतिक लोकतंत्र की द्रष्टिसे, आदिकाल से यहाँ रहने वाले हिंदू एक राष्ट्र रहे हैं, जबकि मुस्लिम एकउग्र अल्पसंख्यक वर्ग है। मुस्लिमों या उनके वर्ग के इसी द्रष्टिकोण के कारण बंटबारे का खतरा बन गया है और वह इसी विचार के खिलाफ हैं। (यहाँ गौर करने वाली बात है कि सवारकर के जिस बयान को जिन्ना का समर्थन बताकर प्रचारित जाता है, उसका सावरकर ने खंडन किया था।)

विक्रम संपत के मुताबिक सावरकर ने 26 जुलाई 1944 को भारत के राज्य सचिव लियो एमरी को अपना पत्र भेजकर कहा, ‘भारत में हिन्दुओं की एकमात्र प्रतिनिधि हिन्दू महासभा पूरे ज़ोर से भारत को बांटने के गांधी के प्रस्ताव का विरोध करती है जिसमें मुस्लिमों को अलग स्वतंत्र राज्यों के गठन की मंजूरी है। गांधी या कांग्रेस हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती। हिन्दुसभाइयों के हज़ारों प्रस्तावों और बैठकों में प्रांतों को अपनी मर्जी से केंद्र सरकार से अलग होने की मांग की भर्त्सना की गई हैं। हिंदूसभावादी कभी अपनी पितृभूमि और पवित्रभूमि भारतीय संघ को तोडा जाना बर्दाश्त नहीं सकते।

7 सितंबर को अनेक नेताओं ने देश के बंटबारे के खिलाफ संयुक्त बयान जारी किया। इनमें वीडी सावरकर, एसपी मुखर्जी, सर ज्वाला प्रसाद श्रीवास्तव, सर चिमनलाल सीतलवाड, सर नृपेंद्र नाथ सरकार, सर पीएस शिवास्वामी अय्यर, वीएस श्रीनिवास शास्त्री, एनबी खरे, सर होमी मेहता, फैज़ बी तैयबजी, एनसी केलकर, सर सुल्तान चिनॉय, एनसी चटर्जी, एलबी भोपतकर, पंडित राजनाथ कुंजरु, सर सी रामलिंग स्वामी, बीएस कामत, दीवान बहादुर केजी ब्रह्मा, राजा माहेश्वर दयाल सेठ और कई अन्य शामिल थे।  

इस बयान का मसौदा निम्न था, ‘भारत को विदेशी दासता से शीघ्र मुक्त कराने की इच्छा के लिए, बिना किसी के आगे झुकते हुए, हमारा स्पष्ट विचार है कि भारत को दो या अधिक हिस्सों में बांटे जाने का विचार, जिसमें समूचे देश के महत्वपूर्ण हितों की निगरानी के लिए किसी केंद्रीय संगठन का न होना, और दोनों की अपनी सशस्त्र सेनाएं होना, न केवल देश के हितों के खिलाफ है बल्कि इसके भविष्य में गंभीर परिणाम भी होंगे और यह देश की उसी स्वतंत्रता को ख़तरे में डालेगा जिसे बचाने के लिए देश के प्रस्तावित बैंटवारे की कवायद को अंजाम दिया जा रहा है। ऐसा विभाजन, अल्पसंख्यकों की समस्याओं को सुलझाने की बजाय, उन्हें बढ़ाएगा और यह मुस्लिमों के हित में भी नहीं होगा। हमारा विचार है कि केंद्र तथा प्रांतों में गठबंधन सरकारें स्थापित की जाएं और अल्पसंख्यकों के विशेष हितों के लिए असरकारी संरक्षण उपलब्ध कराए जाएं। लिहाजा, हम मौजूदा बातचीत में व्यस्त नेताओं से गंभीरतापूर्वक आग्रह करते हैं कि वह देश के बंटबारे को रोकते हुए समूचे हालात को धैर्य और निष्पक्ष रुप से देखें और किसी समझौते पर आएं जो संबंधित सभी हितों को पूर्ण सुरक्षा प्रदान करेगा तथा भारत की एकता को भी बनाए रखेगा, और यही उसकी आवाज में असर और विश्व के अन्य राष्ट्रों के बीच सम्मान दिलाएगा एवं उसे भविष्य में विदेशी दासता के ख़तरे से भी मुक्त कराएगा।’

मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने एक भाषण में इस बात का उल्लेख किया कि विनायक सावरकर पाकिस्तान बनाने के खिलाफ हैं। जिन्ना ने कहा, ‘हिंदू महासभा क्या कर रही है? इसका उद्देश्य है हिंदुओं को सैन्य और औद्योगिक बनाना, उन्हें सेना, नौसेना और वायुसेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना और युद्ध का समर्थन करना। किसका सैन्यीकरण? किसका औद्योगीकरण? हिंदू राष्ट्र का। मैं सावरकर और फील्ड मार्शल मूनजे से पूछता हूँ: क्या आपको लगता है कि इस देश में हर कोई मूर्ख है? क्या आपको लगता है कि आप ब्रिटिशों को मूर्ख बना सकते हैं? इस तरह का टालमटोल क्यों और सेना, नौसेना और वायुसेना में हिंदुओं की भर्ती के पीछे यह दिखावटी वफादारी क्यों? और फिर वे क्या करेंगे? जवाब स्पष्ट है। फिर वे कहते हैं, ‘पाकिस्तान हवा में उड़ जाएगा, और ब्रिटिश लंदन लौट जाएंगे और वहीं बस जाएंगे।’ क्या आपको नहीं लगता कि ऐसे लोग जो इस तरह की बातें करते हैं उन्हें कहीं बंद कर देना चाहिए?’

(Source: Speeches and Writings of Mr. Jinnah, Page 308)

15 सितंबर 1940 को प्रकाशित एक अख़बार की कटिंग के मुताबिक सावरकर ने मद्रास, बंगाल और सिंध के प्रांतीय विधानसभाओं में मुस्लिम लीग द्वारा लाए गए प्रस्तावों की आलोचना करते हुए कहा कि मुस्लिम लीग द्वारा हिंदू विरोधी मांगें रखना दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने मुस्लिम लीग और जिन्ना की तीखी आलोचना की, जो मुसलमानों के लिए स्वतंत्र राष्ट्र की मांग कर रहे थे। विनायक दामोदर सावरकर ने कहा कि चाहे ब्रिटिश राज्य हो या कोई भी अन्य सत्ता, अगर वे मुसलमानों की मांगों को इस आधार पर मानते हैं कि वे एक अलग राष्ट्र हैं तो हिंदू महासभा कभी भी ऐसे सिद्धांत को स्वीकार नहीं करेगी।

(Source: राष्ट्रीय अभिलेख में यहाँ पढ़िए)

29 जनवरी 1941 को शेख अब्दुल कादर ने मोहम्मद अली जिन्ना को एक पत्र में लिखा कि 27वां अखिल भारतीय हिंदू महासभा सम्मेलन 28 से 30 दिसंबर 1940 तक मदुरा के सेतुपति हाईस्कूल में आयोजित किया गया। विनायक दामोदर सावरकर और अन्य नेता 27 तारीख की सुबह पहुंचे और उन्हें एक जुलूस में शहर की प्रमुख सड़कों से ले जाया गया जो सम्मेलन के पंडाल तक गया। जुलूस में लोग झंडे और पोस्टर लेकर चल रहे थे जिन पर मोटे अक्षरों में पाकिस्तान, मुस्लिम लीग, श्री जिन्ना, मुसलमानों और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ नारे लिखे थे। उन्होंने ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’, ‘मुस्लिम लीग मुर्दाबाद’, ‘जिन्ना मुर्दाबाद’, ‘मुसलमान मुर्दाबाद’ और ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ जैसे नारे लगाए। इन नारों और कार्यों ने मुसलमानों की भावनाओं को गहरी ठेस पहुंचाई और हिंदू-मुस्लिम एकता को और कमजोर किया, जो भारत में राजनीतिक उन्नति का एक निर्णायक तत्व है।स म्मेलन की कार्यवाही में कई जिम्मेदार नेताओं ने मुसलमानों और उनके नेताओं के खिलाफ अपमानजनक भाषण दिए जिससे सांप्रदायिक तनाव बढ़ा। सम्मेलन के समापन पर कई प्रस्ताव पारित किए गए, जिनमें पाकिस्तान और मुसलमानों की कड़ी आलोचना की गई।

शेख अब्दुल कादर का जिन्ना को पत्र

(Source: Quaid-i-Azam Papers Third Series Vol 16, Page 236)

ब्रिटिश सरकार ने मई 1942 को अपनी एक सीक्रेट रिपोर्ट में बताया कि हिंदू महासभा ने लाहौर और अमृतसर में 10 मई को ‘एंटी-पाकिस्तान दिवस” (Anti-Pakistan Day) मनाया, जिसके अंतर्गत सभाएं आयोजित की गईं। इन सभाओं में पाकिस्तान योजना की निंदा करते हुए सामान्य भाषण दिए गए और एक लंबा प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें यह घोषित किया गया कि हिंदुओं का लक्ष्य एक स्वतंत्र लेकिन अखंड भारत है और हिंदू किसी भी ऐसे प्रयास का विरोध करेंगे और उसे विफल करेंगे जो मुसलमानों द्वारा पाकिस्तान प्राप्त करने के लिए किया जाए।

(Source: राष्ट्रीय अभिलेख में यहाँ पढ़िए)

ब्रिटिश सरकार ने साल 1944 में अपनी एक रिपोर्ट में बताया कि अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष वीडी सावरकर ने एंटी-पाकिस्तान सप्ताह के दौरान पूरे भारत में 5,000 बैठकें आयोजित की गईं और 50,000 हस्ताक्षर प्राप्त किए गए। साथ ही, सिखों ने भी एक एंटी-पाकिस्तान सम्मेलन आयोजित किया।

ब्रिटिश सरकार की रिपोर्ट

(Source: राष्ट्रीय अभिलेख में यहाँ पढ़िए)

एक दूसरी रिपोर्ट में बताया गया है कि 18 सितम्बर को लखनऊ में आयोजित ‘एंटी-पाकिस्तान कॉन्फ्रेंस’ में गांधी-जिन्ना द्वारा सांप्रदायिक समझौते की दिशा में किए गए प्रयासों की आलोचना करते हुए और हिंदुओं से ‘अखंड हिंदुस्तान’ (अविभाज्य भारत) के समर्थन में प्रचार करने की अपील करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया गया। जिसकी अध्यक्षता राय बहादुर कुंवर गुरु नारायण ने की। सम्मेलन ने सावरकर के नेतृत्व में अपनी पूर्ण आस्था व्यक्त की और वायसराय से आग्रह किया कि वह यह घोषणा करें कि स्वतंत्र भारत का नया संविधान भारत की अखंडता की रक्षा पर आधारित होगा, न कि भारत के विभाजन पर।

एंटी पाकिस्तान कांफ्रेस

(Source: राष्ट्रीय अभिलेख में यहाँ पढ़िए)

29 सितम्बर 1944 को हिंदू महासभा के अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकर ने भारत के विभाजन (टुकड़े) का प्रस्ताव आज एक और भी अधिक खतरनाक रूप ले चुका है, जब गांधी-जिन्ना वार्ता अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दी गई। यह स्थिति वार्ता शुरू होने वाले दिन की अपेक्षा अधिक दुखद है। इस पूरे त्रासदी की बात यह है कि वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जिसे भारतीय राष्ट्र को एकजुट करने के उद्देश्य से अस्तित्व में लाया गया था, उसी ने अब अपने पवित्र उद्देश्य से विश्वासघात कर दिया है।

उन्होंने आगे कहा कि मैं उन कांग्रेसियों और अन्य नेताओं से गंभीर अनुरोध करता हूँ, जिन्होंने गांधी-जिन्ना वार्ता के समाप्त होने की प्रतीक्षा की थी, लेकिन जिनके दिल पाकिस्तान के प्रस्ताव के विरुद्ध क्रोधित थे। अब वे आगे आएं, अपनी भूमिका निभाएं और भारत के विभाजन के सभी प्रयासों की निंदा करें। साथ ही ‘अखंड हिंदुस्तान नेताओं के सम्मेलन’ में भाग लें ताकि एंटी-पाकिस्तान मोर्चे को मज़बूत किया जा सके।

(Source: राष्ट्रीय अभिलेख में यहाँ पढ़िए)

1944 में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मध्य सहयोग बढ़ाने हेतु कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सी. राजगोपालाचारी ने एक फार्मूला तैयार किया। महात्मा गाँधी जीे ने भी इस फार्मूले का समर्थन किया था। राजगोपालचारी और महात्मा गाँधी का मानना था कि अगर मुस्लिम लीग को उनकी पाकिस्तान की माँग पर सशर्त विचार का आश्वासन दे दिया जाए तो वे अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में कांग्रेस का साथ देंगे। साथ ही यह हिंदू-मुस्लिम एकता की दिशा में एक व्यावहारिक कदम है।

इस फार्मूले में कहा गया कि द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पश्चात् एक कमीशन उत्तर-पूर्वी व उत्तर-पश्चिमी भारत में उन क्षेत्रों का निर्धारण करे, जहाँ मुस्लमान स्पष्ट बहुमत में हैं। इस क्षेत्र में जनमत सर्वेक्षण कराया जाए तथा उसके आधार पर यह तय किया जाए कि वे भारत से पृथक होना चाहते हैं कि नहीं। मुस्लिम लीग कांग्रेस द्वारा की जा रही भारतीय स्वतंत्रता की मांग का समर्थन करे।

विनायक दामोदर सावरकर ने राजगोपालचारी के इस फार्मूले का विरोध किया। अखिल भारतीय हिंदू सम्मेलन के प्रस्ताव में कहा गया कि यह सम्मेलन उन सभी प्रस्तावों का कड़ा विरोध करता है जो साम्प्रदायिक आधार पर क्षेत्रीय विभाजन और समुदायों की पृथक बस्ती की योजना बनाते हैं, जिससे माता भारत का विखंडन होगा। इसे कई लड़ाकू राज्यों और संघों में बाँटने का प्रयास और उस माँ भारती का टुकड़े-टुकड़े कर देना, जिसे सभी हिंदू अपनी पवित्र भूमि मानते हैं, अविभाज्य और अपवित्र करने योग्य नहीं, यह अस्वीकार्य है। भारत में बहुसंख्यक हिंदू समुदाय हमेशा मुसलमान अल्पसंख्यकों को समान अधिकार और सुरक्षा प्रदान करने के लिए तैयार रहे हैं, जैसी सुरक्षा हिंदू अल्पसंख्यकों को मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में दी जाने की बात कही गई है। अतः पाकिस्तान की योजना के लिए किसी भी प्रकार का आधार या औचित्य नहीं है।

यह बात स्पष्ट थी कि गैर मुसलमान पाकिस्तान की मांग के खिलाफ है इसीलिए विनायक सावरकर ने पाकिस्तान की मांग वाले जनमत संग्रह को सिर्फ मुस्लिम इलाकों में नहीं बल्कि पूरे देश में करने की मांग की। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान के मुद्दे के लिए अगर जनमत संग्रह आवश्यक हो तो पूरे उसे भारत में कराया जाए।

(राष्ट्रीय अभिलेख में यहाँ पेज 24 पढ़िए)

“परंतु व्यावहारिक राजनीति की आवश्यकता है, और जैसा कि हिंदू मानते हैं, हम अपने गैर-हिंदू देशवासियों से किसी भी प्रकार के संदेह या भय को दूर करना चाहते हैं। इसलिए हम अल्पसंख्यकों के वैध अधिकारों को – उनके धर्म, संस्कृति, और भाषा के संबंध में – एक शर्त पर पूरी तरह से सुरक्षित रखने को तैयार हैं, और वह शर्त यह है कि बहुसंख्यकों के समान अधिकारों को भी उतनी ही दृढ़ता से सुनिश्चित किया जाए।”

“कोई भी अल्पसंख्यक समुदाय अपने बच्चों को प्रशिक्षित करने के लिए अलग स्कूल चला सकता है, अपने धर्म संस्थानों या सांस्कृतिक केंद्रों का निर्माण कर सकता है, और सरकार से सहायता प्राप्त कर सकता है – लेकिन वह सहायता उतनी ही होनी चाहिए जितनी वे राष्ट्रीय कोष में टैक्स के रूप में योगदान करते हैं। यही सिद्धांत बहुसंख्यकों पर भी लागू होगा।”

साल 1930 में अल्लामा इकबाल: साल 1930 में मुस्लिम लीग के इलाहाबाद अधिवेशन में अल्लामा इकबाल ने अध्यक्षीय भाषण में कहा, ‘इस्लाम केवल मजहब नहीं, एक सिविलाइजेशन भी है। दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। एक को छोड़ने से दूसरा भी छूट जाएगा। भारतीय राष्ट्रवाद के आधार पर राजनीति के गठन का मतलब इस्लामी एकता के सिद्धांत से अलग हटना है, जिसके बारे में कोई मुसलमान सोच भी नहीं सकता।’ 

साथ ही, उन्होंने कहा, ‘कोई मुसलमान ऐसी स्थिति को स्वीकार नहीं करेगा, जिसमें उसे राष्ट्रीय पहचान की वजह से इस्लामिक पहचान को छोड़ना पड़े। मैं चाहता हूं कि पंजाब, उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत, सिंध, कश्मीर और बलूचिस्तान का एक सेल्फ रूल स्टेट में मर्ज कर दिया जाए। ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर या बाहर। उत्तर पश्चिम में एक बड़े मुस्लिम स्टेट की स्थापना ही मुझे मुसलमानों की नियति दिखाई दे रही है। 21 जून 1937 में इकबाल ने जिन्ना को फिर से खत लिखा कि, ‘मुझे याद है कि मेरे इंग्लैंड से वापस रवाना होने के पहले लॉर्ड लोथियन ने मुझसे कहा था कि भारत की मुसीबतों का एकमात्र हल बंटवारा ही है, लेकिन इसे साकार करने में 25 साल लगेंगे।’  

साल 1933 में चौधरी रहमत अली का द्विराष्ट्र सिद्धांत और नामकरण: रहमत अली और उनके दोस्तों ने 28 जनवरी 1933 को ‘Now Or Never’ की हेडिंग से एक बुकलेट निकाली थी। चार पन्नों की बुकलेट में कहा गया, ‘भारत की आज जो स्थिति है, उसमें वह न किसी एक देश का नाम है, न ही कोई एक राष्ट्र है, वह ब्रिटेन द्वारा पहली बार बना एक स्टेट है। पांच उत्तरी प्रांतों की लगभग चार करोड़ जनसंख्या में हम मुसलमानों की जनसंख्या लगभग तीन करोड़ है। हमारा मजहब और तहजीब, हमारा इतिहास और परंपरा, हमारा सोशल बिहैवियर और इकनॉमिक सिस्टम, लेन-देन, उत्तराधिकार और शादी-विवाह के हमारे कानून बाकी भारत के ज्यादातर बाशिंदों से बिल्कुल अलग हैं। ये अंतर मामूली नहीं हैं। हमारा रहन-सहन हिन्दुओं से काफी जुदा है। हमारे बीच न खानपान है, न शादी-विवाह के संबंध। हमारे रीति रिवाज, यहां तक कि हमारा खाना पीना और वेशभूषा भी अलग है।’  

चौधरी रहमत अली चौधरी रहमत अली ने इसी बुकलेट में सबसे पहले पाकिस्तान नाम के एक मुस्लिम मुल्क का जिक्र किया गया था। रहमत अली ने ही 1933 में पाकिस्तान नेशनल मूवमेंट की शुरुआत की। उन्होंने 1 अगस्त 1933 से पाकिस्तान नाम की वीकली मैगजीन भी शुरू की। चौधरी रहमत अली ने पाकिस्तान को परिभाषित भी किया था।   रहमत अली के पाकिस्तान शब्द की परिभाषा ये थी: P-Punjab     A-Afghania (North-West Frontier Province)     K-Kashmir     S-Sindh     Tan-BalochisTan    चौधरी रहमत अली ने पाकिस्तान का नक्शा भी छपवाया था। इस किताब के नक्शे में भारत के अंदर तीन मुस्लिम देशों को दिखाया गया था। ये देश पाकिस्तान, बंगिस्तान (पूर्वी बंगाल, आज का बांग्लादेश) और दक्खिनी उस्मानिस्तान (हैदराबाद, निजाम की रियासत) थे। 

हालांकि रहमत अली के पाकिस्तान और अल्लामा इकबाल के सेपरेट मुस्लिम स्टेट में कहीं भी बंगाल का जिक्र नहीं है जबकि पाकिस्तान एक मुल्क बना तो पूर्वी बंगाल को भी पूर्वी पाकिस्तान के तौर पर उसमें शामिल किया गया था, जो बाद में ‘बांग्लादेश’ बना।

साल 1888 सर सैय्यद का द्विराष्ट्र सिद्धांत: अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सर सैय्यद अहमद खान ने मार्च 1888 को मेरठ में अपने भाषण में  कहा, ‘सबसे पहला प्रश्न यह है कि इस देश की सत्ता किसके हाथ में आनेवाली है? मान लीजिए, अंग्रेज़ अपनी सेना, तोपें, हथियार और बाकी सब लेकर देश छोड़कर चले गए तो इस देश का शासक कौन होगा ? क्या उस स्थिति में यह संभव है कि हिंदू और मुस्लिम कौमें एक ही सिंहासन पर बैठें ? निश्चित ही नहीं। उसके लिए आवश्यक होगा कि दोनों एक दूसरे को जीतें, एक दूसरे को हराएँ। दोनों सत्ता में समान भागीदार बनेंगे, यह सिद्धांत व्यवहार में नहीं लाया जा सकेगा।‘  उन्होंने कहा, ‘इसी समय आपको इस बात पर ध्यान में देना चाहिए कि मुसलमान हिंदुओं से कम भले हों मगर वे दुर्बल हैं, ऐसा मत समझिए। उनमें अपने स्थान को टिकाए रखने का सामर्थ्य है। लेकिन समझिए कि नहीं है तो हमारे पठान बंधु पर्वतों और पहाड़ों से निकलकर सरहद से लेकर बंगाल तक खून की नदियाँ बहा देंगे। अंग्रेज़ों के जाने के बाद यहाँ कौन विजयी होगा, यह अल्लाह की इच्छा पर निर्भर है। लेकिन जब तक एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को जीतकर आज्ञाकारी नहीं बनाएगा तब तक इस देश में शांति स्थापित नहीं हो सकती। भारत में प्रतिनिधिक सरकार नहीं आ सकती, क्योंकि प्रतिनिधिक शासन के लिए शासक और शासित लोग एक ही समाज के होने चाहिए।

सर सैयद अहमद खान ने कहा, ‘जैसे अंग्रेज़ों ने यह देश जीता वैसे ही हमने भी इसे अपने आधीन रखकर गुलाम बनाया हुआ था। …अल्लाह ने अंग्रेज़ों को हमारे शासक के रूप में नियुक्त किया हुआ है। …उनके राज्य को मज़बूत बनाने के लिए जो करना आवश्यक है , उसे ईमानदारी से कीजिए। …आप यह समझ सकते हैं मगर जिन्होंने इस देश पर कभी शासन किया ही नहीं, जिन्होंने कोई विजय हासिल की ही नहीं, उन्हें (हिंदुओं) यह बात समझ में नहीं आएगी। मैं आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि आपने बहुत से देशों पर राज्य किया है। आपने 700 साल भारत पर राज किया है। अनेक सदियाँ कई देशों को अपने आधीन रखा है। मैं आगे कहना चाहता हूँ कि भविष्य में भी हमें किताबी लोगों की शासित प्रजा बनने के बजाय (अनेकेश्वरवादी) हिंदुओं की प्रजा नहीं बनना है।’  

सर सैय्यद ने मुसलमानों से कहा, ‘पल भर सोचें कि आप कौन हैं? आपका राष्ट्र कौन सा है? हम वे लोग हैं जिन्होंने भारत पर छः-सात सदियों तक राज किया है। हमारे हाथ से ही सत्ता अंग्रेज़ों के पास गई। हमारा(मुस्लिम) राष्ट्र उनके खून का बना है जिन्होंने सऊदी अरब ही नहीं, एशिया और यूरोप को अपने पाँवों तले रौंदा है। हमारा राष्ट्र वह है जिसने तलवार से एकधर्मीय भारत को जीता है। मुसलमान अगर सरकार के खिलाफ आंदोलन करें तो वह हिंदुओं के आंदोलन की तरह नरम नहीं होगा। तब आंदोलन के खिलाफ सरकार को सेना बुलानी पड़ेगी, बंदूकें इस्तेमाल करनी पड़ेंगी। जेल भरने के लिए नए कानून बनाने होंगे।’

वहीं डॉ. अम्बेडकर अपनी किताब ‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’ में लिखते हैं, ‘सर सैय्यद अहमद ने भारतीय मुसलमानों को समझाया कि भारत को महज इसलिए कि यह मुस्लिम शासन के बजाय अंग्रेजों के शासन के अधीन है, दार-उल-हर्ब न मानें। उन्होंने मुसलमानों से अनुरोध किया कि वे इसे दार-उल-इस्लाम मानें, क्योंकि वे अपने जरूरी रीति-रिवाजों और उत्सवों को अपने धर्मानुसार मनाने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं। हिजरत के लिए जो आंदोलन चला था, वह फिलहाल विलुप्त हो गया, परंतु भारत दार-उल-हर्ब है, इस सिद्धांत का परित्याग नहीं हुआ। 1920-20 में मुस्लिम देशभक्तों ने फिर से इसका उपदेश देना शुरू कर दिया, जबकि देश में खिलाफत आंदोलन चल रहा था। यह आंदोलन मुस्लिम जनता मैं निष्प्रभावी नहीं रहा, इसलिए न सिर्फ अनेक मुसलमानों ने मुस्लिम धार्मिक कानून के अनुसार कदम उठाने की उत्कंठा दिखाई, वरन वे अपने घर छोड़ कर अफगानिस्तान चले गए। यह उल्लेखनीय है कि जो मुसलमान अपने आप को दार-उल-हर्ब में पाते हैं, उनके बचाव के लिए हिजरत ही उपाय नहीं है। मुस्लिम धार्मिक कानून की दूसरी आज्ञा जिहाद (धर्मयुद्ध) है, जिसके तहत हर मुसलमान शासक का यह कर्तव्य हो जाता है कि इस्लाम के शासन का तब तक विस्तार करता रहे, जब तक सारी दुनिया मुसलमानों के नियंत्रण में नहीं आ जाती। संसार के दो खेमों में बंटने की वजह से सारे देश या तो दार-उल-इस्लाम (इस्लाम का घर) या दार-उले-हर्ब (युद्ध का घर) की श्रेणी में आते हैं। तकनीकी तौर पर हर मुस्लिम शासक का, जो इसके लिए सक्षम है, कर्तव्य है कि वह दार-उल-हर्ब को दार-उल-इस्लाम में बदल दे; और भारत में जिस तरह मुसलमानों के हिज़रत का मार्ग अपनाने के उदाहरण हैं, वहां ऐसे भी उदाहरण हैं कि उन्होंने जिहाद की घोषणा करने में संकोच नहीं किया।’   

डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं, ‘तथ्य यह है कि भारत, चाहे एकमात्र मुस्लिम शासन के अधीन न हो, दार-उल-हर्ब है, और इस्लामी सिद्धांतों के अनुसार मुसलमानों द्वारा जिहाद की घोषणा करना न्यायसंगत है। वे जिहाद की घोषणा ही नहीं कर सकते, बल्कि उसकी सफलता के लिए विदेशी मुस्लिम शक्ति की मदद भी ले सकते हैं और यदि विदेशी मुस्लिम शक्ति जिहाद की घोषणा करना चाहती है तो उसकी सफलता के लिए सहायता दे सकते हैं।’  डॉ. 

अम्बेडकर लिखते हैं, ‘मुस्लिम धर्म के सिद्धांतों के अनुसार, विश्व दो हिस्सों में विभाजित है – दार-उल-इस्लाम तथा दार-उल-हर्ब | मुस्लिम शासित देश दार-उल-इस्लाम हैं। वह देश जिसमें मुसलमान सिर्फ रहते है न कि उस पर शासन करते हैं, दार-उल-हर्ब है। मुस्लिम धार्मिक कानून का ऐसा होने के कारण भारत हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों की मात्‌भूमि नहीं हो सकती है। यह मुसलमानों की धरती हो सकती है – कितु यह हिन्दुओं और मुसलमानों की धरती जिसमें दोनों समानता से रहें नहीं हो सकती। फिर, जब इस पर मुसलमानों का शासन होगा तो यह मुसलमानों की धरती हो सकती है। इस समय यह देश गैर-मुस्लिम सत्ता के प्राधिकार के अंतर्गत हैं, इसलिए मुसलमानों की धरती नहीं हो सकती। यह देश दार-उल-इस्लाम होने की बजाय दार-उल-हर्ब बन जाता है। हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि यह दृष्टिकोण केवल शास्त्रीय है। यह सिद्धांत मुसलमानों को प्रभावित करने में बहुत कारगर कारण हो सकता है। इसका मुसलमानों के व्यवहार पर तब बंहुत भारी असर पड़ा, जब अंग्रेजों ने भारत पर अपना अधिकार जमाया। अंग्रेजों के भारत को हथियाने पर हिंदुओं ने कोई बेचैनी नहीं दिखाई। जहां तक मुसलमानों का सवाल था, उन्होंने पूछा कि क्या भारत आब उनके रहने योग्य रह गया हैं? मुस्लिम समुदाय में इस बारे में एक बहस प्रारंभ हुई और, डॉ. टाइटस के अनुसार, आधी शताब्दी तक चली कि क्या भारत दार-उल-हर्ब है या दार-उल-इस्लाम। कुछ ज्यादा धार्मिकों ने सैयद अहमद के नेतृत्व में, वास्तव में जिहाद का ऐलान किया, मुस्लिम शासित भू भाग पर जाने की (हिजरत) आवश्यकता का उपदेश दिया और (उन्होंने) अपना आंदोलन सारे भारत में चलाया।’

साल 1928 में हसन निजामी: डॉ. अम्बेडकर की इसी किताब के मुताबिक 1928 में हसन निजामी ने घोषणापत्र में कहा, ‘मुसलमान हिंदुओं से भिन्न हैं। वे हिंदुओं से घुलमिल नहीं सकते, क्योंकि रक्‍तरंजित युद्धों के बाद मुसलमानों ने भारत पर फतह हासिल की थी और अंग्रेजों ने भारत उन्हीं (मुसलमानों) से लिया था। मुसलमान एक कौम है और वही भारत के अकेले बादशाह हैं। वे कभी भी अपना व्यक्तित्व और पहचान नहीं छोड़ेंगे। उन्होंने हिंदुओं पर सैकड़ों वर्षों तक शासन किया और इसीलिए उनका इस देश पर अक्षुण्ण अधिकार है। हिंदू संसार में एक अल्पसंख्यक समुदाय हैं । उन्हें आपसी लड़ाइयों से ही फुरसत नहीं है। वे गांधी में विश्वास करते हैं और गाय की पूजा करते हैं। वे दूसरे आदमियों के यहां पानी पीकर अपवित्र हो जाते हैं। हिंदू स्वायत्ततासन की न तो इच्छा-शक्ति ही रखते और न ही उनके पास इसके लिए समय ही है। उन्हें आपसी लड़ाइयां ही लड़ने दें। दूसरे लोगों पर शासन करने की उनकी क्षमता ही क्या हैं? मुसलमानों ने शासन किया है और मुसलमान ही शासन करेंगे।

30 दिसम्बर 1906 का लाल इश्तिहार: 30 दिसम्बर 1906 अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना के समय प्रतिनिधियों में ‘लाल इश्तहार’ बांटे गए। इतिहासकार आरसी मजूमदार की किताब ‘History of freedom movement in india’ ने अपनी किताब में इस इश्तिहार में लिखी बातों को प्रकाशित किया है। इस लाल इश्तिहार में लिखा था,

  • हिंदू, विभिन्न चालाकियों से, मुसलमानों से उनकी कमाई का लगभग पूरा हिस्सा छीन रहे हैं।
  • मुसलमानों के पतन के कारणों में एक कारण है उनका हिंदुओं से संपर्क।
  • मुसलमानों की हालत सुधारने के उपायों में से एक है – हिंदुओं का बहिष्कार।
  • हे मुसलमानों, जागो! हिंदू स्कूलों में मत पढ़ो। किसी हिंदू की दुकान से कुछ मत खरीदो। हिंदुओं द्वारा बनाए गए किसी भी सामान को मत छुओ। किसी हिंदू को नौकरी मत दो। किसी हिंदू के अधीन किसी ऑफिस में काम मत करो। तुम अज्ञानी हो, लेकिन अगर ज्ञान प्राप्त कर लो, तो एक बार में ही सभी हिंदुओं को जहन्नुम (नरक) भेज सकते हो। तुम इस प्रांत की बहुसंख्या हो। खेती करने वालों में भी तुम ही बहुसंख्या में हो। कृषि ही संपत्ति का स्रोत है। हिंदू के पास अपनी कोई दौलत नहीं है; उसने केवल तुम्हें लूटकर ही अपना धन बनाया है। यदि तुम पर्याप्त रूप से शिक्षित हो गए, तो हिंदू भूखे मरेंगे और जल्द ही मुसलमान बन जाएंगे।
  • हिंदू बहुत ही स्वार्थी हैं। जैसे-जैसे मुसलमानों की प्रगति होती है, जो हिंदुओं के आत्म-प्रशंसा के खिलाफ है, हिंदू हमेशा अपने स्वार्थों के लिए मुसलमानों का विरोध करेंगे।
  • हिंदुओं का बहिष्कार करो। उन्होंने हमें कितना नुकसान पहुँचाया है! उन्होंने हमारी इज्ज़त और संपत्ति छीन ली। उन्होंने हमारी रोज़ी-रोटी छीन ली। और अब वे हमारे पूरे जीवन को ही छीनने जा रहे हैं।

साल 1939 में मौलाना आजाद सुभानी: डॉ. अम्बेडकर की किताब के मुताबिक मौलाना आजाद सुभानी ने 27 जनवरी, 1939 कोसिलहट में जो अपने उद्गार व्यक्त किए, वे ध्यान देने योग्य हैं। एक मौलाना के सवाल के जवाब में मौलाना आज़ाद सुमानी ने कहा, ‘यदि भारत में कोई प्रतिष्ठित नेता है, जो अंग्रेज को इस देश से बाहर भगाने के पक्ष में है,तो वह मैं हूं। इसके बावजूद मैं चाहता हूं कि मुस्लिम लीग की ओर से अंग्रेजों से कोई लड़ाई न हो। हमारी असली लड़ाई 22 करोड़ हिंदू दुश्मनों से हैं, जो बहुसंख्यक हैं। सिर्फ साढ़े चार करोड़ अंग्रेज वास्तव में सारेविश्व को हड़पकर शक्तिशाली बन गए हैं। यदि ये 22 करोड़ हिंदू, जो शिक्षा, बुद्धि, धन और संख्या में समान रूप से आगे हैं, शक्तिशाली बन गए तो ये सारे हिन्दू भारत को और यहां तक कि मिस्र, तुर्की, काबुल, मक्का, मदीना और अन्यमुस्लिम राज्यों को याजुज-माजुज की भांति एक के बाद एक को निगल जाएंगे।(कुरान में लिखा है कि दुनिया के तबाह होने से पहले वे धरती पर पैदा होंगेऔर जो कूछ उन्हें मिलेगा, उसका भक्षण कर लेंगे)। अंग्रेज धीरे-धीरे कमजोरहोते जा रहे हैं……और निकट भविष्य में वे भारत से चले जाएंगे। अतः यदिहम इस्लाम के सबसे बड़े शत्रु हिंदुओं से नहीं लड़ते और उन्हें कमजोर नहींकरते, तो वे न केवल भारत में रामराज्य स्थापित करेंगे बल्कि क्रमश: सारेसंसार में फैल जाएंगे। यह भारत के 9 करोड़ मुसलमानों पर निर्भर करता है कि हिन्दुओं को शक्तिशाली बनाना है या कमजोर। अतः यह प्रत्येक धर्मपरायणमुस्लिम का परम कर्तव्य हो जाता है कि वह मुस्लिम लीग में शामिल होकर युद्धकरे, जिससे कि यहां हिंदू जम न सकें और अंग्रेजों के यहां से जाते हीमुसलमानों का शासन स्थापित हो। यद्यपि अंग्रेज मुसलमानों के दुश्मन हैं,फिर भी इस समय हमारी लड़ाई अंग्रेजों से नहीं हैं। सर्वप्रथम हमें मुस्लिमलीग के जरिए हिंदुओं से कोई समझौता करना होगा। उसके बाद ही हम आसानी सेअंग्रेजों को बाहर खदेड़ संकेंगे और भारत में मुस्लिम शासन स्थापित करपाएंगे । सावधान रहो! कांग्रेसी मौलवियों के जाल में मत फंसो, क्योंकि मुस्लिमों की दुनिया कभी भी 22 करोड़ हिंदू दुश्मनों के हाथ में सुरक्षित नहीं है।’

पाठक ध्यान दें कि विनायक दामोदर सावरकर 1937 में अपने भाषण में कहा था कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक प्रश्न सदियों पुराने सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय टकराव के फलस्वरूप विरासत में मिले हैं। सही समय आने पर आप उन्हें हल कर सकेंगे, परंतु उन्हें स्वीकारने से इनकार करके आप उन्हें दबा नहीं सकते।

वहीं डॉ. अम्बेडकर अपनी किताब ‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजनमें हिंदू मुस्लिम संबंधों पर लिखते हैं, ‘वे एक दूसरे के खिलाफ संघर्षरत सशस्त्र बटालियनों जैसे रहे हैं। सामूहिक उपलब्धि के लिए योगदान का कोई भी सामूहिक चक्र नहीं चला। उनका अतीत तो पारस्परिक विनाश का अतीत है- पारस्परिक शत्रुता का अतीत, राजनीतिक और धार्मिक दोनों ही क्षेत्रों में जैसा कि भाई परमानंद ने ‘हिंदू राष्ट्रीय आंदोलन’ शीर्षक वाले अपने पत्रक में इंगित किया है – इतिहास में हिंदू लोग पृथ्वीराज, प्रताप, शिवाजी और वीर वैरागी का आदर सहित स्मरण करते हैं, जो इस भूमि के सम्मान और स्वतंत्रता के लिए मुसलमानों के विरूद्ध लड़े थे जबकि मुसलमान भारत पर हमला करने वाले मुहम्मद बिन कासिम और औरंगजेब सरीखे शासकों को अपना राष्ट्र-पुरुष स्वीकार करते हैं। धार्मिक क्षेत्र में हिंदू रामायण, महाभारत और गीता से प्रेरणा लेते हैं तो दूसरी ओर मुसलमान कुरान और हदीस से प्रेरणा लेते हैं। इस तरह, जोडने वाले तत्वों की तुलना में अलग करने वाली बातें अधिक हावी हैं।’

डॉ. अम्बेडकर इस्लामिक आक्रान्ताओं का जिक्र करते हुए लिखते हैं, ‘भारत पर मुसलमानों के हमले भारत के विरूद्ध हुए आक्रमण तो थे ही, साथ ही वे मुसलमानों में पारस्परिक युद्ध भी थे। यह तथ्य इसलिए छिपा रहा है क्योंकि सभी आक्रांताओं को बिना किसी भेदभाव के सामूहिक तौर पर मुसलमान करार दिया जाता है। वे एक-दूसरे के जानी दुश्मन थे और उनके युद्धों का मकसद एक दूसरे का सफाया करना भी था। मगर जिस बात को दिमाग में रखना महत्वपूर्ण है वह यह है कि अपने इन सभी विवादों और संघर्षों के बावजूद वे सभी इस एक सामूहिक उद्देश्य से प्रेरित थे ‘हिंदू धर्म का विध्वंस।

डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं, ‘आक्रांताओं ने जो हथकंडे अपनाए थे, वे अपने पीछे भविष्य में आने वाले परिणाम छोड़ते गए। उनमें से ही एक हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की कटुता है, जो उन उपायों की देन है। दोनों के बीच यह कटुता इतनी गहराई से पैठी हुई है कि एक शताब्दी का राजनीतिक जीवन इसे न तो शांत कर पाने में सफल हुआ है और न ही लोग उस कटुता को भुला पाए हैं। क्योंकि इन हमलों के साथ ही साथ मंदिरों का विध्वंस, बलात् धर्मांतरण, संपत्ति की तबाही, संहार और गुलामी तथा नर-नारियों और बालिकाओं का अपमान हुआ था, अतएव क्या यह कोई आश्चर्यजनक बात है कि ये हमले सदैव याद बने रहे हैं। ये मुसलमानों के लिए गर्व का स्रोत बने तो हिंदुओं के लिए शर्म का।

डॉ. अम्बेडकर 1920 से 1940 तक हिंदू-मुस्लिम दंगों पर लिखते हैं, ‘हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करने के लिए श्री गांधी ने जो जी-तोड़ कोशिश की यदि उसे सामने रखकर देखा जाए तो एक अत्यंत ही दुखद और दिल दुखाने वाला चित्र उभर कर सामने आता है। यह कहना अतिशंयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि यह हिंदुस्तान में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच 20 वर्षों तक चलने वाले गृहयुद्ध का रिकार्ड है, जिसमें सशस्त्र शांति के छोटे-छोटे अंतराल गुजरे हैं।’

डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं, ‘बिना किसी पश्चाताप्‌ और बिना किसीशर्म के लोगों ने स्त्रियों के साथ ऐसे पाशविक अत्याचार किए तथा उनकेभाई-बिरादरीवालों ने उनकी निंदा तक नहीं की। यह घटना इस बात को दर्शाती हैकि दोनों समुदायों में कितना अधिक आपसी विद्वेष और बैर-भाव था। दोनों तरफके आक्रोश से यह लगता है कि दो राष्ट्र आपस में युद्ध कर रहे हैं। हिंदुओंने मुसलमानों के और मुसलमानों ने हिंदुओं के विरूद्ध हिंसा की, लूटपाट कीऔर धार्मिक स्थानों को नष्ट किया। और भी सभी प्रकार के अत्याचार किए- शायदमुसलमानों ने हिंदुओं के विरूद्ध कुछ ज्यादा और हिंदुओं ने मुसलमानों केविरूद्ध कम। आगज़नी की ऐसी कई घटनाएं हुईं, जिसमें मुसलमानों ने हिंदू घरोंको जिस तरह आग लगाई उसमें हिंदुओं के समूचे परिवार के पुरूष, स्त्री औरबच्चे जीवित ही भून दिएं गए। और देखनेवाले मुसलमानों को बड़ी प्रसन्नताहोती थी। आश्चर्य की बात यह है कि जानबूझकर निर्दयतापूर्वक की गई इसक्रूरता को अत्याचार नहीं माना गया, जिनकी निंदा की जाती, बल्कि लड़ाई काएक ही तरीका माना गया, जिसके लिए माफी मांगने की कोई जरूरत नहीं थी।’

डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं, ‘पिछले 30 वर्षों का इतिहास दर्शाता है कि हिंदू-मुस्लिम एकता प्राप्त नहीं हुई है। इसके विपरीत उनमें बहुत बड़ा भेद है। एकता के लिए लगातार और निष्ठापूर्ण प्रयत्न किए गए हैं और अब कुछ करने को शेष नहीं है, सिवाय इसके कि एक पार्टी दूसरे के सामने आत्मसमर्पण कर दें। यदि कोई व्यक्ति, जो आशावादी नहीं है और उसका आशावादी होना न्यायसंगत न हो, यह कहें कि हिंदू–मुस्लिम एकता  एक मृगतृष्णा की तरह है और एकता के विचार को छोड़ देना चाहिए, तो कोई भी उसे निराशावादी या अधीर आदर्शवादी कहने का साहस नहीं कर सकता। यह हिंदुओं पर निर्भर करता है कि तमाम दुर्भाग्यपूर्ण प्रयत्नों के बावजूद वे अब भी एकता की कोशिश करेंगे या इस कोशिश को छोड़कर एकता का कोई और आधार तलाश करेंगें। 

डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं, ‘हिंदुओं और मुसलमानों के धार्मिक विश्वास, सामाजिक दृष्टिकोण, मूल नियति औरउनकी सांप्रदायिक और राजनीतिक अभिव्यक्तियों ऐसी हैं। ये धार्मिक ‘एंवसामाजिक विश्वास उनके अपने भविष्य के बारे में उनकी इस मनोदशा को इंगितकरते हैं कि क्या वे आपस में लड़ते रहेंगे। प्रेम अथवा सहयोगपूर्ण ढंग सेरह सकेंगे? अतीत का अनुभव बताता है कि इन सामंजस्य नहीं हो सकता। इनमें इतनीं असमानताएं एवं भेदभाव हैं कि ये एक राष्ट्र के रूप में अथवा एकराष्ट्र के दो समुदायों के रूप में प्रेम एवं सद्भावना के माहौल में कभीनहीं रह सकते। इन आपसी भिन्नताओं एवं मतभेदों के कारण अलग-अलग रहने पर भीकोई फर्क नहीं पड़ता, बल्कि ये कारण इनको युद्ध की स्थिति में ही रखते हैं। ये मतभेद स्थाई हैं और हिंदू-मुसलमानों की समस्या चिरस्थाई है। इन समस्याओं का यह सोचकर निदान करने की कोशिश करना कि हिंदू और मुसलमान ‘एक हैं, और यदि अभी एंक नहीं भी हैं तो बाद में एक हो जाएंगे, एक निष्फलप्रयास है, ऐसा निष्फल प्रयास जैसा कि चेकोस्लोवाकिया के मामले में सिद्ध हुआ है। इसलिए अब समय आ गया है जब कुछ तथ्यों को हमे ‘निर्विवाद रूप सेस्वीकार करना होगा, चाहे उनको मानना हमारे लिए कष्टकर ही क्यों न हो। सर्वप्रथम हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हिंदुओं और मुसलमानों को एक करने के लिए यथासंभव सभी प्रयास कर लिए गए हैं, पर वे सभी निष्फल हुए हैं।’

हिंदू मुस्लिम एकता के सवाल पर डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं, ‘हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए किए गए प्रयत्नों की विफलता और मुस्लिम विचारधारा में परिवर्तन की दुखद घटनाओं की वास्तविकव्याख्या क्या है? हिंदू-मुस्लिम एकता की विफलता का मुख्य कारण इस अहसास कान होना है कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जो भिन्नताएं हैं, वे मात्रभिन्नताएं ही नहीं हैं, और उनके बीच मनमुटाव की भावना सिर्फ भौतिक कारणोंसे ही नहीं है। इस विभिन्नना का स्रोत ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवंसामाजिक दुर्भावना है, और राजनीतिक दुर्भावना तो मात्र प्रतिबिंब है। येसारी बातें असंतोष का दरिया बना लेती हैं, जिसका पोषण उन तमाम बातों सेहोता है जो बढ़ते-बढ़ते सामान्य धाराओं को आप्लावित करता चला जाता है। दूसरेस्रोत से पानी की कोई भी धारा, चाहे वह कितनी भी पवित्र क्यों न हो, जबस्वंय उसमें आ मिलती है तो उसका रंग बदलने के बजाय वह स्वयं उस जैसी होजाती है। दुर्भावना का यह अवसाद, जो धारा में जमा हो गया हैं, अब बहुतपक्का और गहरा बन गया है। जब तक ये दुर्भावनाएं विद्यमान रहती हैं, त, तकहिंदू और मुसलमान के बीच एकता की अपेक्षा करना अस्वाभाविक है।’

डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं, ‘तुर्की साम्राज्य में ईसाई और मुसलमानों की तरहभारत के हिंदुओं और मुसलमानों के बीच कई लड़ाईयां हो चुकी हैं या वे शत्रुके रूप में एक दूसरे के सामने आ चुके हैं और इ। के बाद उनके संबंध विजेताएवं पराजित के बन गए हैं जिस भी किसी फत की विजय हुई है, उनके बीच एक गहरीखाई के बावजूद जबरन राजनीति एकता बनी रही, चाहे वह मुसलमानों के तहत रही होया फिर अंग्रेजों के या छिसी और के तहत; और उनमें बेहतर संबंधों के बजाए,जैसा कि अन्य करई मामलों में होता रहा है, असंतोष बढ़ता गया है। इस खाई को नतो धर्म और न ही सामाजिक संहिता पाट सकी है। ये दोनों धर्म एक-दूसरे केप्रतिकूल हैं और अच्छी सामाजिक व्यवस्था के लिए इनमें जबरन चाहे जो भीसामंजस्य बिठाया गया हो, कितु आंतरिक सामंजस्य स्थापित नहीं हो पा रहा है। इन दोनों के बीच एक प्राकृतिक विरोध की भावना रही है, जिसे शताब्दियों सेखत्म नहीं किया जा सका है। दोनों मतावलंबियों को साथ लाने के लिए अकबर औरकबीर जैसे सुधारकों द्वारा किए गए कार्यों के बावजूद इन दोनों के बीच अभीतक ऐसी नैतिक वास्तविकताएं मौजूद हैं कि लगता है कि उन्हें कभी भी सम-स्तरपर नहीं लाया जा सकता। एक हिंदू बिना किसी सामाजिक विप्लव या झटके के ईसाईधर्म अपना सकता है, लेकिन वही बिना किसी सांप्रदायिक दंगे या बिना किसीहिचकिचाहटं के इस्लाम धर्म नहीं अपना सकता। यह इस बात का द्योतक है किहिंदुओं और मुसलमानों मैं कितना गहरा प्रतिरोध है, जो उन्हें अलग-अलग करताहै। यदि इस्लाम और हिंदू धर्म मुसलमानों और हिंदुओं को उनके निजी विश्वासके मामले में अलग-अलग करते हैं तो वे उन्हें सामाजिक मेल-मिलाप से भी दूररखते हैं। यह सर्वविदित है कि हिंदू धर्म मुसलमानों से शादी-ब्याह पर रोकलगाता है। यह संकीर्णता सिर्फ हिंदू धर्म की ही नहीं है, बल्कि इस्लाम भी हिंदू और मुसलमानों के बीच शादी-ब्याह पर प्रतिबंध लगाता है। ऐसी सामाजिकसंहिताओं के होते हुए भी इनमें कोई सामाजिक मेलमिलाप नहीं हो सकता।फलस्वरूप न तो उनके दृष्टिकोण और रहन-सहन में एकता हो सकती है और न हीबरसों से चली आ रही उनकी निश्चित मान्यताओं की धारा बदल सकती है।’

डॉ.अम्बेडकर लिखते हैं, ‘हिंदू धर्म और इस्लाम में और भी अनेक दोष हैं, जोहिंदुओं और मुसलमानों के घावों को कभी भरने नहीं देते। कहा जा सकता है किहिंदू धर्म लोगों को बांटता है, जबकि इस्लाम धर्म उन्हें मिलाता है, लेकिनयह अर्द्धसत्य है क्योंकि इस्लाम भी लोगों को उतना ही बांटंता है, जितना किहिंदू धर्म। इस्लाम एक बंद निकाय की तरह है, जो मुसलमानों औरगैर-मुसलमानों के बीच जो भेद यह करता है, वह बिल्कुल मूर्त और स्पष्ट है।इस्लाम का भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों सेही भ्रातृत्व है। यह बंधुत्व है, परंतु इसका लाभ अपने ही निकाय के लोगों तकसीमित है और जो इस निकाय से बाहर हैं, उनके लिए इसमें सिर्फ घृणा औरशत्रुता ही है। इस्लाम का दूसरा अवगुण यह है कि यह सामाजिक स्वशासन की एकपद्धति है और स्थानीय स्वशासन से मेल नहीं खाता, क्योंकि मुसलमानों कीनिष्ठा, जिस देश में वे रहते हैं, उसके प्रति नहीं होती, बल्कि व उसधार्मिक विश्वास पर निर्भर करती है, जिसका कि वे एक हिस्सा हैं एक मुसलमानके लिए इसके विपरीत या उलटे सोचना अत्यंत दुष्कर है। जहां कहीं इस्लाम काशासन हैं, वहीं उसका अपना विश्वास हैं। दूसरे शब्दों में, इस्लाम एक सच्चेमुसलमानों को भारत को अपनी मातृभूमि और हिंदुओं को अपना निकट संबंधी माननेकी इजाजत नहीं देता। संभवत: यही वजह थी कि मौलाना मुहम्मद अली जैसे एकमहान भारतीय परंतु सच्चे मुसलमान ने अपने शरीर को हिंदुस्तान की बजाएयेरूसलम में दफनाया जाना अधिक पसंद किया।’

डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं, ‘मुसलमान नेताओं के इस सैद्धांतिक परिवर्तन को उनके विचारों में हुआ ‘कपटपूर्ण बदलाव नहीं कहा जा सकता। यह परिवर्तन एक नए प्रकाश की ओर उनकी एक नई नियति की ओर इंगित करता है, जिसे उन्होंने नया नाम दिया है – ‘पाकिस्तान’ | हिंदुस्तान से पाकिस्तान के अलग होने के साथ ईरान, ईराक, अरब, तुर्की, मिस्र आदि मुस्लिम देश अपना एक संघ बना रहे हैं, जो कुस्तुनतुनिया से लाहौर तक बनेगा। एक मुसलमान वास्तव में मूर्ख ही होगा यदि वह अपने इस नए भाग्य का नक्शा देखकर अपने विचार यह सोचकर पूरी तरह से बदल न दे कि मुसलमानों का भारत में क्या स्थान है। मुसलमानों का लक्ष्य इतना स्पष्ट है कि कई बार यह आश्चर्य होता है कि उन्हें इसे अपनाने में इतना समय क्यों लगा। इस बात के प्रमाण हैं कि कुछ मुसलमानों ने तो अपने इस अंतिम लक्ष्य को 1923 में ही जान लिया था। उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत की समिति के एन.एम समर्थ ने अपनी अल्पसंख्यक विषयक रिपोर्ट में इस ओर विशेष ध्यान आकर्षित किया है। इस रिपोर्ट में एक सवाल के जवाब में खान साहब सरदार ने कहा कि हिंदू–मुसलमान एकता कभी भीं वास्तविक नहीं हों पाएगी। हम हिंदुओं और मुसलमानों का विभाजन भले देखे लें। दक्षिण की तरफ 23 करोड़ हिंदू और उत्तर की ओर  8 करोड़ मुसलमान हैं । कन्याकुमारी से आगरा तक हिंदुओं को दिया जाए और आगरा से पेशावर तक मुसलमानों को। मेरा अभिप्राय है: एक स्थान से दूसरे स्थान तक लोगों का स्थानांतरण। यह लोगों की अदला-बदली का विचार है। यह नर-संहार का विचार नहीं है। रूसी क्रांति व्यक्तिगत संपत्ति के विरूद्ध हैं। यह सारी संपत्तियों के राष्ट्रीयकरण के लिए है। परंतु यह बात अदला-बदली तक ही सीमित है। यह व्यावहारिक नहीं लगती। किंतु यदि यह व्यावहारिक होती, तो हम निश्चित रूप से इसे पसंद करते, बजाए किसी और व्यवस्था के।

डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं,  ‘1924 में मुस्लिम लीग के बंबई अधिवेशन में श्री मुहम्मद अली ने मांटेग्यू चेम्सफोर्ड रिफार्म्स को उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रदेश में लागू करने संबंधी संकल्प में यह सुझाव’ दिया कि पाकिस्तान के सीमांत सीमा सूबे के मुसलमानों को यह आत्मनिर्णय का अधिकार होना चाहिए कि वे भारत के साथ रहें अथवा काबुल के साथ। उन्होंने किसी अंग्रेज को भी उद्धृत किया, जिसने कहा था कि कुस्तुनतुनिया से दिल्‍ली तक एक सीधी रेखा खींची गई तो इससे जाहिर हो जाएगा कि मुसलमानों का गलियारा सहारनपुर तक है। संभवत: श्री मुहम्मद अली को पाकिस्तान की सारी योजना मालूम थी, जो साक्ष्य के दौरान अचानक ही अनजाने में सामने आ गई, जिसका श्री समर्थ ने किया है और वह है अंततोगत्वा पाकिस्तान का अफगानिस्तान के साथ बंधन।’

हिंदू मुस्लिम एकता पर डॉ. अम्बेडकर लिखते है कि जबरन एकता का नुकसान यह होगा कि हिंदू-मुस्लिम समस्या को निपटाने के लिए आधार खोजने होंगे। इस समस्या का निदान करना कितना दुष्कर॑ होगों, यह किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है। भारत को हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बांटने के अलावा और क्‍या किया जा संकता है? देश के अन्य हितों को नुकसान पहुंचाए बिना इस समस्या के निपटान के लिए जो कुछ भी किया जा सकता है,  इससे ज्यादा सोचना मुश्किल है। इस बात में संदेह नहीं कि जब तक यह जबरन एकता बनी रहेगी जब तक भारत में सांप्रदायिकतां का निदान नहीं होगा, तब तक भारत कोई राजनीतिक प्रगति नहीं कर सकेगा। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच, जिन्हें अब हमें दो अलग-अलय राष्ट्र मानना होगा, इस बारे में एक सांप्रदायिक समझौता, बल्कि एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता, करवाना होगा – जबरन एकता की राजनीति के लिए यह आवश्यक हो गया है।

डॉ. अम्बेडकर की किताब के मुताबिक बंगला समाचार पत्र के संपादक ने 1924 में कवि डॉ. रवींद्रनाथ टैगोर का साक्षात्कार लिया। इस साक्षात्कार में रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा, ‘जो हिंदू-मुस्लिम एकता को असंभव बना रहा था,वह था मुसलमानों की देशभक्ति, जो वे किसी एक देश के प्रति कायम नहीं रखसकते। कवि ने कहा कि उन्होंने कई मुसलमानों से निःसंकोच होकर पूछा कि यदिभारत पर कोई मुसलमान ताकत आक्रमण करती है तो क्‍या वे अपने हिंदू पड़ोसी केसाथ मिलकर अपने देश की रक्षा करेंगे? कवि को जो उत्तर मिले, उससे उन्हेंसंतोष नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि वे निश्चित रूप से कह सकते हैं कि श्रीमोहम्मद अली जैसे व्यक्ति का यह कथन है कि किसी भी परिस्थिति में कोई भीमुस्लिम किसी भी देश में रहता हो, इस्लाम धर्मावलंबी के विरूद्ध उसका खड़ाहोना असंभव है।’

वहीं इस्माइली मुसलमानों के 48वें इमाम, मुस्लिम लीग के संस्थापक सदस्य और पहले अध्यक्ष सर सुल्तान मुहम्मद शाह आगा खान तृतीय ने ‘The memoirs of Aga Khan’ में लिखा है कि लार्ड मिटों ने हमारी मांगे स्वीकार करके उन सभी संविधानक प्रस्तावों की आधार शिला की नींव रखी जिन्हें बाद में ब्रिटिश सरकारों ने भारत के सम्बन्ध में प्रस्तुत किया और उसका अंतिम अपरीहार्य परिणाम यह निकला कि भारत का विभाजन और पाकिस्तान बना‘ (1909 के अधिनियम को मॉर्ले मिंटो सुधार के नाम से जाना जाता है, इस अधिनियम के तहत पहली बार मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन प्रणाली की नींव पड़ी। इसमें ऐसे निर्वाचन क्षेत्र बनाये जाए जहाँ मुस्लिम प्रत्याशियों के लिए केवल मुस्लिम ही मतदान कर सकते थे।)

आगा खान आगे लिखते हैं कि उस वक्त मोहम्मद अली जिन्ना हमारे आलोचक और विरोधी थे लेकिन बाद में लगभग आठ करोड़ मुसलमानों के निर्विवाद नेता के रूप में उन्होंने विजय प्राप्त कर एक अलग और स्वतंत्र राष्ट्र पाकिस्तान का निर्माण किया। जिसके लिए हम शुरुआत में अनजाने और परोक्ष रूप से काम कर रहे थे लेकिन अंत में वे पूरी चेतना, स्पष्टता और अपनी पूरी इच्छाशक्ति और बुद्धि के साथ उसी लक्ष्य की ओर अग्रसर हुए।

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