कमल कुमार सिंह। एमजे अकबर बनाम प्रिया रमानी केस में राउज एवेन्यू कोर्ट के कथन “शोषण के मामले में व्यक्तिगत प्रतिष्ठा को वरीयता नहीं दी जा सकती” वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है। यह एक पुरुष और स्त्री में वर्ग संघर्ष पैदा करने वाला फैसला है।
पुरुष यूं भी अपने अधिकारों से लापरवाह है, वास्तव में उसके पास कोई अधिकार ही नही है बल्कि उसके पास अधिकार नही है इसका भी ज्ञान उसे तब होता है जब वो स्त्रियोचित कानून रूपी अभेद्य जाल में फंस जाता है। कहने लिए कोर्ट ने पुरुष को कुछ अधिकार दिए हैं, उदाहरण के तौर पे मान लीजिए तलाक का केस, इस केस में कुछ ग्राउंड स्त्री पुरुष के लिए समान है, जैसे क्रुवलिटी, या अनुपयोग (unconsumed marrige for long time) या जारकर्म (Adultery) लेकिन क्या ये धरातल पर है? यदि इन आधार से कोई पुरुष तलाक लेना चाहें तो क्या उसे उसे आराम से मिल जाता है? नही बल्कि इनमें से एक भी आधार पर वो वाद दायर करता है तो उसके ऊपर सिर्फ स्त्रियों के लिए बनाये कानून का सोटा चल पड़ता है। पुरुष द्वारा जेन्युइन मामले में भी वाद दायर करते ही उसपे डीवी एक्ट, दहेज, आदि का केस लगना तय है, तो ऐसी स्थिति में पुरुष उस दमनकारी स्त्री के साथ रहने को अभिशप्त है। या यूं कह ले कि एकतरफ खाई और एक तरफ कुवां वाला मामला है और परिणति उसके आत्म हत्या तक पहुँच जाती है।
इसका ताजा ताजा उदाहरण हाल ही में ही एक प्रतिभाशाली अभिनेता संदीप नागर की आत्महत्या इसी एकतरफा कानून का जाल है हालाँकि ये तो एक बानगी है। NCRB डेटा की माने तो शादीशुदा जोड़े में स्त्री की तुलना में पुरुष के आत्महत्या का दर कहीं ज्यादा और भयावह है। इस तरह के एकतरफा कानून किसी जाति, वर्ग या लिंग को शशक्त बनाने के लिए किया जाता है लेकिन दुर्भाग्य है कि वही जाती, वर्ग या लिंग उसे अपने अमानवीय इक्षा, स्वार्थ और अहम के लिए इस्तेमाल करने लगता है तो स्थिति भयावह हो जाती है और इसका नुकसान भविष्य सिर्फ और सिर्फ वही लिंग, जाति या वर्ग उठता है जिसके फायदे के लिए ये कानून बनाया जाता है।
उदाहरण के तौर पर एसटी-एससी एक्ट लिया जा सकता है। शोषित और वंचितों के लिए कानून बनाया गया तो किसी ने सोचा भी नही था कि इसका कितने बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हो सकता है, अंततः थक हार के सुप्रीम कोर्ट को रूलिंग लानी पड़ी और एक अच्छा कानून स्वार्थ, अहम, दुरुपयोग के भेंट चढ़ गया, क्योकि मैं आज भी मनाता हूँ कि हर जगह नही तो कही कहीं शोषण आज भी विद्यमान है। ध्यान रहे, कि ये एक्ट एक सवर्ण ही लाये थे, उसी तरह स्त्रियों के सुरक्षा के लिए जितने कानून बने हैं उनमें पुरुषों की भागीदारी ही रही है, यदि पुरुषों को स्त्रीयों का शोषण करना ही एक मात्र उद्देश्य रहता तो कानून ही क्यों बनाते? लेकिन जिस तरह से इन कानून का दुरुपयोग करना शुरू किया है उससे निश्चित ही आज नही तो भविष्य में स्त्रियोचित कानून पर डाईलूशन रूलिंग आएगा ही आएगा और डर है वास्तविक पीड़ित को इंसाफ ही न मिले, वैसे भी आजकल वास्तविक पीड़ित न्याय से दूर है और स्त्रयोचित कानून सिर्फ मादाओं के शोषण में एक हथियार बनी हुई है और कोर्ट इसके लिए एक संस्था।
तो एमजे अकबर बनाम प्रिया रमानी के में राउज एवेन्यू कोर्ट के वर्डिक्ट का क्या इससे ज्यादा क्या मतलब निकाला जाए कि यदि कोई महिला दुर्भावनापूर्ण तरिके से किसी के ऊपर चरित्र हनन करती है तो वो ऐसा करने के लिए स्वतंत्र है। उस व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा, परिवार और जब व किसी संवैधानिक पद को गवाता है तो यह उस व्यक्ति के साथ नाइंसाफी नहीं है। ऐसी पूर्वाग्रही न्याय व्यवस्था खोखली पद्धति है। न्याय के लिए आरोपों का सिद्ध होना न्याय का पहला आधार है।
भावनाओं के आधार पर बहुत तर्क हो सकते है जिसका कोई अंत नहीं होगा। तो इस तरह के फैसले पर न मीडिया चिल्लाती है न बुद्धजीवी आंखे उठाते हैं यही नही सुप्रीम कोर्ट तक ऐसे मामलों में कान में रुई डाल लेती है, स्वतः संज्ञान तो लेना दूर की बात है, जैसा कि हाल में देख चुके है कि किस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट के निर्णय पर स्वतः संज्ञान लिया है जबकि उस महिला जज का निर्णय विधि सम्मत था। और हाँ, पुरुषों के प्रति इतना दुरागरहित कानून सिर्फ भारत मे ही है, विश्व मे कहीं भी नही। (लेखक के विचार स्वतंत्र हैं)