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2 Apr 2025, Wed

क्या ब्राह्मणों ने छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक पैर के अंगूठे से किया था?

मराठा साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक को 351 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं। 6 जून 1674 को उनका राज्याभिषेक हुआ था। 1674 में राज्याभिषेक से पहले छत्रपति शिवाजी की हैसियत एक स्वतंत्र शासक की थी, राज्याभिषेक के बाद उन्हें छत्रपति की उपाधि मिली। इस बीच अक्सर यह दावा किया जाता है कि शिवाजी महाराज एक निम्न जाति वर्ग से आते थे इसीलिए ब्राह्मण ने हाथ की बजाए पैर के अंगूठे से उनका राज्याभिषेक किया था।

समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव ने पत्रकारों से बातचीत में कहा कि आप मुझसे सवाल पूछिए कि जब शिवाजी महाराज राजा बने तब उनका अंगूठे से तिलक किसने किया था? जब पत्रकार ने उनसे पूछा कि शिवाजी महाराज का तिलक अंगूठे से किसने किया था? इसके जवाब में अखिलेश यादव ने कहा कि भारतीय जनता पार्टी इस पर चर्चा नहीं करना चाहती।

अखिलेश यादव ने एक दूसरे वीडियो में भी कहा कि छत्रपति शिवाजी महाराज का बाएं पैर के अंगूठे से तिलक किया गया था। क्या भारतीय जनता पार्टी इसकी निंदा करेगी, वो इसकी माफी मांगेगी?

ब्रज श्याम मौर्य ने एक कतरन पोस्ट की। इसमें बताया गया है कि शिवाजी महाराज कुर्मी समाज से आते थे। इस वजह से महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने उनका राज्याभिषेक करने से मना कर दिया था। आखिर में काफी तलाशने पर वाराणसी के एक ब्राह्मण गांधभट्ट इसके लिए तैयार हुएl खूब सारी दौलत लेने के बाद उन्होंने 6 जून 1974 को शिवाजी का राज्याभिषेक एक अपमानजनक विधि से किया। उस ब्राह्मण ने हाथ के अंगूठे से तिलक लगाये जाने की बजाए पैर के अंगूठे से तिलक किया।

सपा के नेता मनोज यादव ने एक्स पर लिखा, ‘अगर ये बाते इतिहास के पन्नों में दर्ज है,तो क्या आज इसका कोई जवाब देगा। छत्रपति शिवाजी महाराज शुद्र होने के कारण उन्हें मन्दिर जाने नहीं दिया गया उनका राज्याभिषेक करने से पूना के ब्राह्मणों ने मना कर दिया बनारसी ब्राह्मण घाघ भट्ट ने हजारों सोने की मोहरे दक्षिणा में लेकर भी शिवाजी का राज्याभिषेक हाथ की अंगुली से ना करके अपने दाहिने पैर के अंगूठे से उनके माथे पर तिलक लगाकर राज्याभिषेक कियाl’

शैलेश वर्मा ने लिखा, ‘छत्रपति शिवाजी महाराज शुद्र होने के कारण:- मन्दिर जाने नहीं दिया गया उनका राज्याभिषेक करने से पूना के ब्राह्मणों ने मना किया बनारसी ब्राह्मण घाघ भट्ट ने हजारों असर्फी दक्षिणा में लेकर भी अंगुली से ना करके अपने दाहिने पैर के अंगूठे से उनके माथे पर तिलक लगाकर राज्याभिषेक किया l’

क्या है हकीकत? अपनी पड़ताल में हमने प्रसिद्ध भारतीय इतिहासकार और विद्वान जदुनाथ सरकार (Jadunath Sarkar) की किताब ‘शिवाजी एंड हिज टाइम्स’ (Shivaji and His Times) का अध्ययन किया। जदुनाथ सरकार का दृष्टिकोण वैज्ञानिक और तथ्य-आधारित इतिहास लेखन पर केंद्रित रहा है। उन्होंने अपने लेखन के लिए प्राथमिक स्रोतों, दस्तावेज और अभिलेखों का गहन अध्ययन किया था।

जदुनाथ सरकार की पुस्तक ‘शिवाजी एंड हिज टाइम्स‘ ऑनलाइन भी उपलब्ध है। यह किताब साल 1920 में प्रकाशित हुई थी। हमने इस पुस्तक के पन्नों को पलटा तो पृष्ठ संख्या 238 पर शिवाजी के राज्याभिषेक का चैप्टर मिला।

जदुनाथ सरकार ने अपनी किताब में लिखा है कि शिवाजी ने कई क्षेत्रों पर विजय प्राप्त कर ली थी, अपार धन-संपत्ति अर्जित कर ली थी, उनकी एक सशक्त सेना और नौसेना थी, और वे किसी भी स्वतंत्र शासक की तरह प्रशासन चला रहे थे। लेकिन, सैद्धांतिक रूप से उनकी स्थिति केवल एक सामान्य प्रजा की ही थी। मुगल सम्राट के दृष्टिकोण से वे केवल एक ज़मींदार थे और आदिलशाह के लिए वे बस एक बागी जागीरदार के पुत्र थे। इस कारण वे किसी भी राजा के समान राजनीतिक दर्जा पाने का दावा नहीं कर सकते थे।

वहीं भोंसले वंश के उत्थान से महाराष्ट्र के अन्य मराठा परिवारों में जलन की भावना उत्पन्न हो रही थी। पहले जो परिवार सामाजिक रूप से उनके समकक्ष थे, वे अब शिवाजी को अपना स्वामी मानने के लिए तैयार नहीं थे। वे स्वयं को औरंगज़ेब या आदिलशाह का वफादार बताते थे और शिवाजी को एक बागी और सत्ता हड़पने वाला समझते थे। इसके अलावा, महाराष्ट्र के विद्वान और जागरूक लोग भी शिवाजी को हिंदू धर्म के रक्षक के रूप में देखने लगे थे। वे चाहते थे कि हिंदू समाज राजनीतिक रूप से स्वतंत्र और सशक्त हो। उनके लिए हिंदू स्वराज का अर्थ था कि एक हिंदू सम्राट (छत्रपति) सत्ता संभाले। इसी भावना के चलते शिवाजी के राज्याभिषेक की आवश्यकता महसूस की गई, ताकि वे स्वतंत्र और वैध हिंदू शासक के रूप में स्थापित हो सकें।

लेकिन इस आदर्श को साकार करने में एक अजीब बाधा थी। प्राचीन हिंदू शास्त्रों के अनुसार केवल क्षत्रिय जाति का व्यक्ति ही विधिवत रूप से राजा बन सकता था और हिंदू प्रजा से राजकीय सम्मान प्राप्त कर सकता था। भोंसले वंश को आमतौर पर न तो क्षत्रिय माना जाता था और न ही किसी अन्य उच्च जाति का। वे केवल किसान माने जाते थे, जैसा कि शिवाजी के परदादा के बारे में अब भी कहा जाता था। ऐसे में, एक साधारण कृषक परिवार से निकले व्यक्ति को क्षत्रियों के अधिकार और सम्मान प्राप्त करने का क्या हक था? भारत के सभी ब्राह्मण शिवाजी के राज्याभिषेक में भाग लेते और उन्हें अपना आशीर्वाद देते, जब यह प्रमाणित किया जाता कि वे वास्तव में क्षत्रिय हैं।

जदुनाथ सरकार लिखते हैं कि शिवाजी के भव्य राज्याभिषेक की बड़े पैमाने पर तैयारियां की गयीं। शिवाजी ने इस विशाल आयोजन की व्यवस्था में अद्वितीय दूरदृष्टि और संगठन क्षमता का परिचय दिया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि ब्राह्मणों, दरबारियों, राज्य के सम्मानित व्यक्तियों, अन्य राज्यों के प्रतिनिधियों, विदेशी व्यापारियों, आमंत्रित अतिथियों और उनके गरीब संबंधियों के आराम की पूरी व्यवस्था हो। इतनी बड़ी संख्या में पुरुष, महिलाएँ और बच्चे वहाँ एकत्र थे, लेकिन न तो कोई अव्यवस्था हुई, न ही कोई कमी महसूस की गई, और न ही किसी प्रकार की अफरा-तफरी या शोरगुल हुआ। भारत भर के विद्वान ब्राह्मणों को निमंत्रण भेजे गए थे, और इस समारोह की चर्चा सुनकर कई अन्य ब्राह्मण स्वयं भी वहाँ आ गए। कुल मिलाकर 11,000 ब्राह्मण रायगढ़ में एकत्र हुए और उनके परिवारों सहित यह संख्या 50,000 तक पहुँच गई। इन सभी को शिवाजी के खर्चे पर चार महीनों तक मिठाइयाँ खिलाई गईं।

राज्याभिषेक समारोह की शुरुआत में शिवाजी ने अपने गुरु रामदास स्वामी और अपनी माँ जीजाबाई के चरणों में नमन किया और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। इसके बाद शिवाजी ने देश के प्रसिद्ध मंदिरों की यात्रा कर वहाँ पूजा-अर्चना की। 21 मई की दोपहर को रायगढ़ लौटने के बाद वे गहन धार्मिक साधना में लीन हो गए। उन्होंने कई दिनों तक महादेव, भवानी और अन्य देवी-देवताओं की पूजा की।

जदुनाथ सरकार लिखते हैं कि राज्याभिषेक से पहले शिवाजी को सार्वजनिक रूप से शुद्ध किया जाना था और क्षत्रिय बनाया जाना था। 28 मई को उन्होंने अपने पूर्वजों और स्वयं द्वारा अब तक क्षत्रिय संस्कार न अपनाने के पाप के प्रायश्चित के रूप में एक विशेष अनुष्ठान किया। इसके बाद गागा भट्ट ने उन्हें यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण कराया, जो कि उत्तर भारत के शुद्ध क्षत्रियों और अन्य द्विज जातियों की पहचान थी। शिवाजी ने यह माँग रखी कि एक सच्चे हिंदू राजा के राज्याभिषेक में जो भी वैदिक मंत्रोच्चार होते हैं, वे सभी उनके सामने किए जाएँ, क्योंकि वे अब “द्विज” यानी दूसरी बार जन्मे (यज्ञोपवीत धारण करने वाले) जातियों में शामिल हो चुके थे और इस अधिकार के हकदार थे। लेकिन इस पर वहाँ उपस्थित ब्राह्मणों में विरोध शुरू हो गया। उनका तर्क था कि वर्तमान युग में (कलियुग में) कोई भी सच्चा क्षत्रिय शेष नहीं बचा है और केवल ब्राह्मण ही द्विज जाति के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं। इस भारी विरोध के चलते स्वयं गागा भट्ट भी भयभीत हो गए और अंततः उन्होंने शिवाजी के लिए वैदिक मंत्रों के उच्चारण को छोड़ दिया। इसके बजाय, उन्होंने राज्याभिषेक की एक संशोधित विधि अपनाई, जिससे शिवाजी को द्विज जीवन की दीक्षा तो मिली लेकिन उन्हें ब्राह्मणों के समान अधिकार नहीं दिए गए।

इस शुद्धिकरण और जनेऊ संस्कार को अत्यंत भव्यता के साथ संपन्न किया गया। इसमें बड़ी मात्रा में धन ब्राह्मणों में वितरित किया गया—गागा भट्ट को अकेले 7,000 हुन (एक प्रकार की स्वर्ण मुद्रा) मिले, जबकि शेष ब्राह्मणों को कुल 17,000 हुन प्रदान किए गए। शिवाजी ने अपने जीवन में जाने-अनजाने किए गए पापों के प्रायश्चित के लिए एक और अनुष्ठान किया। इस अनुष्ठान में उन्हें सात धातुओं—सोना, चाँदी, तांबा, जस्ता, टिन, सीसा और लोहा—के साथ-साथ महीन कपड़े, कपूर, नमक, सुपारी, मसाले, घी, शक्कर, फल, और अन्य खाद्य पदार्थों के बराबर तौला गया। इन सभी वस्तुओं को उनके शरीर के वजन के बराबर दान कर दिया गया, साथ ही अतिरिक्त एक लाख हुन भी ब्राह्मणों को वितरित किए गए। लेकिन इतने बड़े दान के बाद भी ब्राह्मणों का लोभ शांत नहीं हुआ। उनमें से दो विद्वान ब्राह्मणों ने तर्क दिया कि शिवाजी ने अपने आक्रमणों के दौरान कई नगरों को जलाया था, जिससे ब्राह्मणों, गायों, महिलाओं और बच्चों की मृत्यु हुई थी। इस पाप से मुक्त होने के लिए उन्हें एक विशेष अनुष्ठान करना होगा और इसके लिए एक निश्चित धनराशि चुकानी होगी। दिलचस्प बात यह थी कि उन्हें उन परिवारों को कोई मुआवजा नहीं देना था, जिन्होंने अपने प्रियजनों को सूरत या करिंजा के आक्रमणों में खोया था। इसके बजाय उन्हें केवल कोंकण और देश क्षेत्र के ब्राह्मणों को कुछ धन देना था। इस पाप-शुद्धि का मूल्य मात्र 8,000 रुपये रखा गया, जिसे शिवाजी ने सहर्ष दे दिया।

जदुनाथ सरकार लिखते हैं कि 5 जून 1674 को राज्याभिषेक की पूर्व संध्या थी, जिसे संयम और आत्मशुद्धि में बिताना आवश्यक था, ठीक वैसे ही जैसे मध्यकालीन योद्धाओं के लिए दीक्षा की रात होती थी। शिवाजी ने गंगाजल से स्नान किया और गागा भट्ट को 5,000 हुन तथा अन्य प्रमुख ब्राह्मणों को प्रत्येक को 100 स्वर्ण मुद्राएँ भेंट कीं। संभवतः यह दिन उपवास में बीता।

राजकुमार शंभूजी, जो राज्य के उत्तराधिकारी थे, उनके पीछे बैठे। इसके बाद, अष्टप्रधान (शिवाजी के आठ मंत्री) आठ दिशाओं में खड़े हुए। उनके हाथों में सोने के कलश थे, जिनमें गंगा और अन्य पवित्र नदियों का जल भरा था। मंत्रोच्चार और संगीत के बीच राजा, रानी और राजकुमार के सिर पर यह जल सामूहिक रूप से उंडेल दिया गया। फिर सोलह ब्राह्मण महिलाओं, जो शुद्ध वस्त्रों में थीं, सोने की थाली में रखे पाँच दीपों को जलाकर शिवाजी के सिर के चारों ओर घुमाने लगीं। यह अनुष्ठान दुष्ट शक्तियों और नकारात्मक ऊर्जा को दूर करने के लिए किया गया।

इसके बाद शिवाजी महाराज ने अपना वस्त्र बदलकर गहरे लाल रंग का राजकीय पोशाक पहना, जो सोने की कढ़ाई से सुसज्जित था। उन्होंने चमचमाते रत्नों और सोने के आभूषण, माला, और मोती की झालरों और गुच्छों से सजी पगड़ी धारण की। फिर उन्होंने अपने तलवार, ढाल, धनुष और बाणों की पूजा की और बड़ों व ब्राह्मणों को प्रणाम किया। इसके बाद, ज्योतिषियों द्वारा तय किए गए शुभ मुहूर्त में वे सिंहासन कक्ष (राज्याभिषेक सभा) में प्रवेश कर गए। राज्याभिषेक कक्ष को हिंदू परंपराओं के अनुसार 32 शुभ प्रतीकों और पवित्र पौधों से सजाया गया था। छत पर सोने के कपड़े से बना एक भव्य छत्र (आसमान जैसा शामियाना) टंगा था, जिससे मोती की झालरें लटक रही थीं। फर्श को मखमली कालीनों से ढका गया था। बीच में एक शानदार सिंहासन रखा गया था, जिसे महीनों की मेहनत के बाद राजा के शान के अनुरूप तैयार किया गया था। कुछ लोगों के अनुसार, इस पर 32 मन (लगभग 1280 किलो) सोना लगा था, जिसकी कीमत 14 लाख रुपए आँकी गई थी। हालांकि, एक अंग्रेज़ यात्री के अनुसार, यह सिंहासन भव्य और राजसी था। सिंहासन का आधार सोने की परत से मढ़ा हुआ था, और इसके आठ कोनों पर आठ स्तंभ थे, जो हीरों और बहुमूल्य रत्नों से सजे हुए थे।

🔸 सोलह ब्राह्मण सुहागिन महिलाओं ने फिर से मंगल आरती उतारी, जिससे माहौल पूरी तरह शुभ और पवित्र हो गया।
🔸 ब्राह्मणों ने वेद मंत्रों का उच्चारण किया और शिवाजी को आशीर्वाद दिया, जिसके बदले में शिवाजी ने झुककर उनका सम्मान किया।
🔸 वहां उपस्थित जनसमूह ने ज़ोरदार जयघोष किया – “शिवराज की जय! विजय भव!”
🔸 एक साथ वाद्ययंत्र बजने लगे, गायक मधुर गीत गाने लगे और पूरे माहौल में भक्ति और उल्लास की लहर दौड़ गई।
🔹 पहले से किए गए निर्देशानुसार, पूरे राज्य के किलों से तोपों की सलामी दी गई, जिससे आकाश गूंज उठा।
🔹 तभी प्रधान आचार्य गागा भट्ट आगे आए, उन्होंने सोने की किनारी से जड़ा रेशमी छत्र शिवाजी के सिर पर रखा और घोषणा की— अब से यह महान योद्धा और धर्मरक्षक शिवाजी छत्रपति हैं!”

ब्राह्मण आगे आए और शिवाजी के सिर पर आशीर्वाद दिया।

🔹 राजा ने उन्हें, गरीबों और आम जनता को भारी मात्रा में धन और उपहार बांटे।
🔹 उन्होंने हिंदू धर्मशास्त्रों में बताए गए “सोलह महादानों” का अनुष्ठान किया, जिससे उनकी उदारता और धार्मिकता का परिचय मिला।
🔹 इसके बाद मंत्रीगण सिंहासन के पास आए, उन्होंने राजा को प्रणाम किया और सम्मान के प्रतीक रूप में वस्त्र, नियुक्ति पत्र, धन, घोड़े, हाथी, आभूषण, वस्त्र और शस्त्र प्राप्त किए।
🔹 शिवाजी महाराज ने एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया – अब से सभी सरकारी पदों के लिए संस्कृत नामों का उपयोग होगा। पहले से प्रचलित फारसी उपाधियों को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया।

जदुनाथ सरकार लिखते हैं कि राजकुमार शंभाजी, प्रधान पुरोहित गागा भट्ट और प्रधानमंत्री मोरो त्र्यंबक पिंगले सिंहासन से थोड़ी नीचे एक ऊँचे स्थान पर बैठे थे। अन्य मंत्रीगण सिंहासन के दाएँ और बाएँ दो पंक्तियों में खड़े थे। दरबारी और आगंतुक अपनी-अपनी पदानुसार उचित स्थानों पर सम्मानपूर्वक खड़े थे। तब तक सुबह के आठ बज चुके थे। इंग्लैंड के राजदूत हेनरी ऑक्सिंडेन को नारोजी पंत ने पेश किया। उन्होंने दूर से झुककर प्रणाम किया। उनके दुभाषिए नारायण शेनवी ने राजा को एक हीरे की अंगूठी भेंट स्वरूप अर्पित की। शिवाजी महाराज ने उन पर ध्यान दिया और उन्हें सिंहासन के निकट बुलाया। उन्हें सम्मानसूचक वस्त्र प्रदान किए और फिर उन्हें आदरपूर्वक विदा कर दिया।

वहीं जब सभी औपचारिक प्रस्तुतियाँ समाप्त हो गईं, तो राजा सिंहासन से नीचे उतरे और अपने सबसे अच्छे घोड़े पर सवार हुए, जिसे भव्य सजावट से सुसज्जित किया गया था। इसके बाद, वह महल के आंगन में पहुँचे, जहाँ उन्होंने अपने अस्तबल के सबसे सुंदर हाथी पर सवारी की, जिसे इस खास अवसर के लिए शानदार ढंग से सजाया गया था। फिर उन्होंने पूरे सैन्य जुलूस के साथ राजधानी की सड़कों पर यात्रा की। उनके चारों ओर उनके मंत्री और सेनापति थे। उनके आगे दो हाथियों पर दो शाही ध्वज— “जरी-पताका” और “भगवा झंडा”— लहराए जा रहे थे। उनके पीछे उनकी सेना के सेनापति, सैनिकों की टुकड़ियाँ, तोपखाना और बैंड आगे बढ़ रहे थे।

राज्य के नागरिकों ने इस विशेष अवसर के लिए अपने घरों और सड़कों को सुंदर ढंग से सजाया था। गृहणियों ने राजा के स्वागत में दीपक जलाकर आरती उतारी और उनके ऊपर तले हुए चावल, फूल, पवित्र घास आदि की वर्षा की। इसके बाद, शिवाजी ने रायगढ़ की पहाड़ियों पर स्थित विभिन्न मंदिरों का दौरा किया और प्रत्येक मंदिर में भेंट अर्पित कर पूजा की। इसके बाद, वह वापस महल लौट आए।

7 तारीख को सभी राजदूतों, ब्राह्मणों और जरूरतमंदों के बीच उपहारों और दान का वितरण शुरू हुआ, जो बारह दिनों तक चला। इस दौरान, जनता को भी राजा के खर्च पर भोजन कराया गया। हालांकि, प्रतिष्ठित पंडितों और संन्यासियों को इस दान वितरण में शामिल नहीं किया गया, क्योंकि आम पुरुषों को केवल 3 से 5 रुपये, और महिलाओं और बच्चों को 1 या 2 रुपये ही दिए गए थे। संभवतः राज्याभिषेक के अगले दिन ही मानसून शुरू हो गया। तेज़ बारिश और खराब मौसम ने वहां मौजूद विशाल जनसमूह को असुविधा में डाल दिया। 8 तारीख को शिवाजी ने बिना किसी विशेष समारोह या धूमधाम के अपनी चौथी शादी कर ली। इससे कुछ ही समय पहले उन्होंने तीसरी शादी भी की थी।

राज्याभिषेक के सफलतापूर्वक संपन्न होने के बाद, 18 जून को जीजाबाई का निधन हो गया। उन्होंने अपनी पूरी उम्र सम्मान और खुशी के साथ जी, और अपने पुत्र शिवाजी के लिए 25 लाख हुन (सोने की मुद्रा) की निजी संपत्ति छोड़ी। कुछ लोगों के अनुसार, यह संपत्ति इससे भी अधिक थी। जब उनकी मृत्यु का शोककाल समाप्त हो गया, तब शिवाजी ने शुद्धिकरण अनुष्ठान के तहत दूसरी बार सिंहासन ग्रहण किया और अपने राज्य पर अधिकार की पुष्टि की।

इसके बाद हमने प्रख्यात मराठी इतिहासकार गजानन भास्कर मेहेंदळे ‘श्री राजा शिवछत्रपती’ का अध्ययन किया। गजानन भास्कर की यह किताब ‘श्री राजा शिवछत्रपती’ दो खंडों में मराठी में प्रकाशित की गयी है जबकि इसे ‘Shivaji His Life and Times’ शीर्षक से अंग्रेजी में प्रकाशित किया गया है। उन्होंने कई वर्षों के शोध के बाद इस किताब को लिखा है। इसमें समकालीन ऐतिहासिक संदर्भों से छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन, उनकी सैन्य रणनीतियों, प्रशासनिक नीतियों को बताया गया है।

गजानन भास्कर मेहेंदळे की पुस्तक ‘Shivaji His Life and Times‘ ऑनलाइन भी उपलब्ध है। हमने इस पुस्तक के पन्नों को पलटा तो पृष्ठ संख्या 788 पर शिवाजी के राज्याभिषेक का चैप्टर मिला।

गजानन भास्कर लिखते हैं कि शिवाजी ने अपने प्रारंभिक जीवन से ही खुद को एक स्वतंत्र शासक के रूप में स्थापित किया। यह उनकी मुहर (राजचिह्न) में भी झलकता है, जिसका सबसे पुराना प्रमाण 28 जनवरी 1646 का एक दस्तावेज़ है, जब वे मात्र 16 वर्ष के थे। ‘शिवभारत'(शिवभारत एक संस्कृत महाकाव्य है, जिसे परमानंद नामक कवि ने लिखा था। यह ग्रंथ 1673 ईस्वी में लिखा गया था) में उल्लेख है कि जब अफजल खान को पता चला कि शिवाजी जावली में पूरी तरह युद्ध के लिए तैयार हैं, तो उसने उन्हें एक पत्र लिखा।

इस पत्र का एक अंश, जैसा कि महाकाव्य में वर्णित है, इस प्रकार है—

“तुम्हारी हिम्मत इतनी बढ़ गई है कि तुम सम्राट जैसी शान-शौकत दिखाते हो, बिना किसी अधिकार के स्वर्ण सिंहासन पर बैठते हो, लोगों को पुरस्कार देते हो या दंडित करते हो। तुमने उन लोगों को प्रणाम करना भी बंद कर दिया है जो इसका पात्र हैं, क्योंकि अब तुम स्वतंत्र हो चुके हो। तुम इतने हठी हो गए हो कि अब तुम मुझसे छोटे व्यक्तियों (यानी अफजल खान से) से भी नहीं डरते। इसलिए, विजयी आदिलशाह ने मुझे तुम्हारे खिलाफ भेजा है।”

गजानन भास्कर लिखते हैं कि यह संभव है कि शिवभारत में दिया गया पत्र वास्तविक पत्र से थोड़ा अलग हो, क्योंकि इसमें कवि की कल्पना भी शामिल हो सकती है। लेकिन यह सत्य है कि शिवाजी स्वयं को स्वतंत्र शासक मानते थे, चाहे वह इस पत्र में उल्लेखित हो या नहीं। इसका प्रमाण यह भी है कि जब 1665 में शिवाजी ने जय सिंह के सामने आत्मसमर्पण किया, तब उन्होंने मुगलों से कोई मनसब (सरकारी पद) स्वीकार नहीं किया। संभवतः वे इसे अपनी स्वतंत्रता पर एक कलंक मानते थे। चाहे जो भी हो, सामान्य जनता की नजर में राज्य की स्थिरता और कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए शिवाजी के राज्य को एक औपचारिक और वैधानिक मान्यता देने की आवश्यकता थी। यह प्राचीन परंपरा के अनुसार राज्याभिषेक के माध्यम से संभव हुआ। शिवाजी द्वारा अपने राज्य की औपचारिक स्थापना और सिंहासन ग्रहण करने की प्रक्रिया ने मराठा साम्राज्य को वैधता प्रदान की। संभवतः यही एक महत्वपूर्ण कारण था कि औरंगजेब द्वारा संभाजी की हत्या किए जाने और कई वर्षों तक जिंजी के किले में राजाराम की घेराबंदी के बावजूद भी मराठा राज्य अस्तित्व में बना रहा।

सभासद बखर(शिवाजी महाराज के जीवन और कार्यों पर लिखी गई एक ऐतिहासिक रचना है। इसे शिवाजी महाराज के दरबारी लेखक कृष्णजी अनंत सभासद ने लिखा था। सभासद बखर को 1694 ईस्वी में लिखा गया था यानी शिवाजी महाराज की मृत्यु (1680) के लगभग 14 साल बाद। इसे शिवाजी के पुत्र राजाराम के समय में लिखा गया) के अनुसार गागाभट्ट ने जब शिवाजी की प्रसिद्धि सुनी तो वे बनारस से उनसे मिलने आए। उन्होंने उत्साहित होकर यह विचार व्यक्त किया कि मराठा राजा को छत्रपति (राजकीय छत्रधारी, एक स्वतंत्र सम्राट) बनना चाहिए। शिवाजी और उनके सभी प्रमुख सरदारों ने इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया। हालांकि, सभासद बखर में दी गई इस जानकारी की पुष्टि के लिए कोई समकालीन स्रोत उपलब्ध नहीं है। यह संभव है कि राज्याभिषेक का विचार स्वयं शिवाजी के मन में आया हो। फिर भी यदि यह सुझाव किसी और ने भी दिया हो, तो इसे साकार करने का श्रेय निस्संदेह केवल शिवाजी को ही जाता है।

सभासद बखर के इस कथन—”गागाभट्ट, शिवाजी की प्रसिद्धि सुनकर उनसे मिलने बनारस से आए”—से यह गलत धारणा बन सकती है कि गागाभट्ट और शिवाजी की इससे पहले कभी मुलाकात नहीं हुई थी। लेकिन यह सत्य नहीं है। अप्रैल 1664 से पहले राजापुर में शिवाजी के आदेश पर एक सामाजिक-धार्मिक विषय पर विचार करने के लिए पंडितों की एक सभा बुलाई गई थी। उस सभा द्वारा दिए गए संस्कृत में लिखे गए एक निर्णय का प्रमाण आज भी मौजूद है।

इस दस्तावेज़ की शुरुआत में 15 पंडितों के नाम दिए गए हैं, जो इस सभा में उपस्थित थे। इनमें सबसे पहला नाम गागाभट्ट का है जो यह प्रमाणित करता है कि शिवाजी अप्रैल 1664 से पहले से ही गागाभट्ट को एक धर्मशास्त्र विशेषज्ञ के रूप में जानते थे। इसके अलावा इस निर्णय के साथ ‘शिवाप्रशस्ति’ नामक एक प्रशस्ति भी संलग्न है, जिससे यह प्रतीत होता है कि गागाभट्ट भी अप्रैल 1664 से पहले शिवाजी के महान कार्यों से परिचित थे।

गागाभट्ट का परिवार मूल रूप से महाराष्ट्र का था लेकिन कई पीढ़ियों से वे बनारस में बस गए थे और अपनी विद्वत्ता के लिए प्रसिद्ध थे। उनके परदादा नारायणभट्ट, जो अकबर के शासनकाल में रहते थे, ने काशी विश्वेश्वर मंदिर का पुनर्निर्माण किया था। यह मंदिर पहले मुस्लिम शासकों द्वारा नष्ट कर दिया गया था। इसके अलावा, उन्होंने कई धार्मिक ग्रंथ भी लिखे थे। गागाभट्ट के पिता दीनकर भी एक प्रसिद्ध लेखक थे। उन्होंने अपने पुत्र विश्‍वेश्वर (गागाभट्ट का वास्तविक नाम) को प्यार से ‘गागा’ कहकर पुकारा और यही नाम आगे चलकर गागाभट्ट के रूप में प्रसिद्ध हुआ। गागाभट्ट स्वयं भी धर्मशास्त्र पर कई महत्वपूर्ण व्याख्याएं और ग्रंथ लिखने के लिए जाने जाते हैं।

4 अप्रैल 1674 को रायगढ़ से ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रतिनिधि नारायण शेनवी द्वारा बॉम्बे के डिप्टी गवर्नर को लिखा गया एक पत्र उपलब्ध है, जिसमें शिवाजी महाराज के आसन्न राज्याभिषेक का उल्लेख किया गया है। यह शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक से जुड़ा सबसे पुराना संदर्भ माना जाता है। अंग्रेज़ उस समय शिवाजी महाराज से 1660 में मराठों द्वारा उनकी राजापुर फैक्ट्री की लूटपाट के मुआवजे को लेकर बातचीत कर रहे थे। इसी सिलसिले में नारायण शेनवी को अंग्रेज़ों के प्रतिनिधि के रूप में रायगढ़ भेजा गया। वे 24 मार्च 1674 को रायगढ़ किले के तलहटी में पहुंचे और पाचड में निराजी रावजी के पुत्र प्रल्हाद निराजी से मिले। प्रल्हाद निराजी ने उनसे कहा कि जब तक शिवाजी महाराज उन्हें किले पर आने की अनुमति नहीं देते, तब तक वे वहीं ठहरें।

इसके बाद, नारायण शेनवी ने अपने एक सेवक को यह सूचना देने के लिए भेजा कि वे रायगढ़ पहुंचे हैं। उसी दिन सेवक लौटकर आया और बताया कि शिवाजी महाराज अपने हाल ही में दिवंगत पत्नी के शोक की अवधि पूरी करने के बाद उनसे मिलेंगे और तब तक उन्हें किले के नीचे ही रुकना होगा।

28 मार्च 1674 निराजी रावजी पाचड आए और अगले दिन वे नारायण शेनवी को किले पर ले गए। शेनवी रायगढ़ किले पर पांच दिन रुके और उन्हें 3 अप्रैल को शिवाजी महाराज से मिलने का अवसर मिला। इस बैठक में शिवाजी महाराज ने अपने कर्मचारियों को निर्देश दिया कि वे अंग्रेजों से पूर्व में तय हुए समझौते के अनुसार आदेश जारी करें।

4 अप्रैल 1674 को लिखे गए इस पत्र में शेनवी ने रायगढ़ के हालातों का जिक्र किया, “शिवाजी महाराज एक अत्यंत भव्य सिंहासन बनवा रहे हैं, जिस पर वे बहुत सा सोना और कीमती रत्न खर्च कर रहे हैं। वे आगामी जून में अपना राज्याभिषेक करने जा रहे हैं, जो नए साल की शुरुआत मानी जा रही है। इस राज्याभिषेक के लिए उन्होंने कई विद्वान ब्राह्मणों को आमंत्रित किया है और उन्हें हाथी, घोड़े तथा धन-दौलत का दान देंगे। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि स्वयं शिवाजी महाराज को राज्याभिषेक कराया जाएगा या किसी अन्य राजकुमार को, क्योंकि यह भी कहा जा रहा है कि उनके पास निज़ामशाही वंश का कोई राजकुमार है, जिसे वे अपने संरक्षण में रखे हुए हैं।”

गजानन भास्कर लिखते हैं कि यह स्पष्ट नहीं है कि शेनवी ने जून 1674 को नए साल की शुरुआत क्यों बताया। लेकिन ऐसा संभव है कि शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के बाद इसे एक नए युग की शुरुआत माना गया हो। पत्र में यह भी उल्लेख है कि यह स्पष्ट नहीं था कि शिवाजी महाराज स्वयं राज्याभिषेक करवाएंगे या किसी और को राजा बनाएंगे। उस समय अफवाह थी कि शिवाजी महाराज शायद किसी निज़ामशाही राजकुमार को राजा बना सकते हैं, जैसा कि उनके पिता शाहजी ने 1633 में किया था, जब उन्होंने मुगलों द्वारा दौलताबाद जीतने और हुसैन निज़ामशाह को बंदी बनाए जाने के बाद, पेमगिरी किले पर एक अन्य निज़ामशाही राजकुमार मुरार्जी को राजा घोषित कर दिया था।

पत्र के अंत में शेनवी लिखते हैं, “अब मैं आपसे अनुरोध करता हूं कि आप तुरंत श्री हेनरी ऑक्सेंडेन को एक अच्छे उपहार के साथ भेजें… आपने पहले ही निराजी पंडित को लिखा था कि आप अपनी परिषद के एक अंग्रेज़ को (समझौते पर हस्ताक्षर के लिए) भेजेंगे, जिसे उन्होंने राजा को बता दिया है। इसलिए यह उचित होगा कि श्री हेनरी ऑक्सेंडेन एक महत्वपूर्ण उपहार के साथ आएं, जिसकी कीमत लगभग 1,000 से 1,200 रुपये हो सकती है। यह भी उचित होगा कि आप राज्याभिषेक के समय राजा को कोई उपहार दें, लेकिन यह वर्तमान में भेजा जाने वाला उपहार सभी के लिए पर्याप्त होगा।”

नारायण शेनवी के पत्र पर विचार करने के बाद बॉम्बे परिषद ने निर्णय लिया कि हेनरी ऑक्सेंडेन को शिवाजी महाराज के साथ संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए रायगढ़ भेजा जाए और इसके लिए आवश्यक उपहारों की व्यवस्था सूरत से की जाए। 9 अप्रैल 1674 को बॉम्बे परिषद ने सूरत परिषद को एक पत्र लिखा, जिसमें शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के लिए 3,000 से 4,000 रुपये मूल्य के बहुमूल्य रत्नों की व्यवस्था करने का अनुरोध किया गया। यह ध्यान देने योग्य है कि शिवाजी महाराज ने अंग्रेजों को अपने राज्याभिषेक समारोह में शामिल होने के लिए आमंत्रित नहीं किया था। बल्कि बॉम्बे परिषद ने स्वयं निर्णय लिया कि वे अपने प्रतिनिधियों को उपहारों के साथ इस अवसर पर भेजेंगे। बॉम्बे परिषद के पत्र के अनुसार, सूरत परिषद ने शिवाजी महाराज के लिए उपहार तैयार किए और उन्हें 18 अप्रैल 1674 को एक पत्र के साथ भेज दिया।

वहीं बॉम्बे परिषद ने आदेश दिया कि श्री ऑक्सेंडन शीघ्रता से रायरी जाने की तैयारी करें और भेंट (उपहार) साथ ले जाएँ। साथ ही, यह भी निर्देशित किया गया कि श्री जॉन (चाइल्ड), श्री ऑक्सेंडन और श्री अस्तिक आज अपराह्न एकत्र होकर भेंट को व्यवस्थित करें और यह विचार करें कि इसे किस प्रकार प्रस्तुत किया जाएगा। इसके पश्चात, इसकी पूरी जानकारी अगले परिषद् दिवस पर अध्यक्ष को प्रस्तुत की जाए।

“साथ ही यह भी आदेश दिया गया कि श्री जॉर्ज रॉबिन्सन और श्री थॉमस मिशेल इस कार्य में सहायता हेतु श्री ऑक्सेंडन के साथ जाएँ।”

भेंटों की व्यवस्था का विवरण (11 मई 1674): बॉम्बे परिषद् की बैठक में 11 मई 1674 को उपहारों की व्यवस्था से संबंधित विवरण इस प्रकार दर्ज किया गया, “श्री चाइल्ड, श्री ऑक्सेंडन और श्री अस्तिक ने शिवाजी महाराज के लिए भेंटों को तैयार किया और उन्हें उचित रूप से विभाजित किया, ताकि वे नियमानुसार प्रस्तुत की जा सकें। परिषद् और अध्यक्ष ने इन भेंटों की समीक्षा की और उन्हें स्वीकृति दी।

उपहारों की सूची निम्नलिखित है, शिवाजी महाराज के लिए:

एक मस्तक आभूषण (हीरों आदि से जड़ा) – लागत: 690 रुपये

दो कंगन (हीरों आदि से जड़े) – लागत: 450 रुपये

दो मोती (10 1/10 रत्ती वजन) – लागत: 510 रुपये

कुल योग: 1650 रुपये

संभाजी राजे (शिवाजी महाराज के पुत्र) के लिए:

दो कंगन (छोटे माणिक से जड़े) – लागत: 125 रुपये

एक वक्ष आभूषण (8 हीरों से जड़ा) – लागत: 250 रुपये

कुल योग: 375 रुपये

मोरोपंत त्र्यंबक पिंगले (शिवाजी महाराज के प्रधान मंत्री) के लिए:

दो बड़े मोती – लागत: 400 रुपये

अनाजी पंडित (शिवाजी महाराज के एक अन्य प्रमुख मंत्री) के लिए:

दो सोने की चेन (7 तोला वजन) – लागत: 125 रुपये

निराजी पंडित (शिवाजी महाराज के एक अन्य मंत्री) के लिए:

दो पामरिन (विशेष वस्त्र) – लागत: 70 रुपये

रावजी सोमनाथ (शिवाजी महाराज के सचिव) के लिए:

दो पामरिन – लागत: 70 रुपये

कुल लागत: 2690 रुपये

“इसके अतिरिक्त, अन्य छोटे उपहार भी थे, जिनका वितरण श्री ऑक्सेंडन की विवेकानुसार विभिन्न अधिकारियों को करना था, जिससे कंपनी के हितों को बल मिल सके।”

हेनरी ऑक्सेंडन, जॉर्ज रॉबिन्सन और थॉमस मिशेल के साथ 13 मई 1674 को बॉम्बे से एक छोटी नाव (‘शिबाद’) से रवाना हुए। चाउल में ठहरने के बाद वे 19 मई 1674 को पाचड पहुँचे। वहाँ से वे 22 मई 1674 को रायगढ़ पहुँचे और संधि पर हस्ताक्षर करने के पश्चात 13 जून 1674 को वापस रवाना हुए। वे 16 जून 1674 को बॉम्बे लौटे। इस यात्रा का विस्तृत विवरण हेनरी ऑक्सेंडन की डायरी में मिलता है।

हेनरी ऑक्सेंडन की यात्रा डायरी से महत्वपूर्ण अंश,

19 मई 1674: हम रायरी के लिए प्रस्थान किए और प्रातः नौ बजे पाचड पहुँचे। यह रायरी पर्वत के तल पर स्थित एक बस्ती है। वहाँ हमें पता चला कि शिवाजी महाराज प्रतापगढ़ गए हैं, जहाँ वे देवी भवानी के मंदिर में पूजन एवं अनुष्ठान संपन्न करने हेतु पधारे हैं। इस अवसर पर उन्होंने अनेक भेंट समर्पित की हैं, जिनमें एक शुद्ध स्वर्ण निर्मित छत्र (सोम्ब्रेरो) भी सम्मिलित है, जिसका वजन लगभग 114 मण है और जिसे उन्होंने देवी को अर्पित किया है। चूँकि हमें उनके लौटने तक किले में प्रवेश की अनुमति नहीं मिली, हमने समतल भूमि पर अपने शिविर स्थापित किए।”

21 मई 1674: हम उसी स्थान (पाचड) में शिविर में रुके रहे। अत्यधिक गर्मी और असुविधा का अनुभव हुआ, किंतु संध्या को हर्ष हुआ जब ज्ञात हुआ कि महाराज प्रतापगढ़ से लौट आए हैं। इसके पश्चात, मैंने निराजी पंडित से निवेदन किया कि वे हमें रायरी दुर्ग में प्रवेश की अनुमति दिलाने में सहायता करें।”

22 मई 1674: हमें दुर्ग में प्रवेश करने की अनुमति प्राप्त हुई। महाराज ने हमारे लिए एक भवन नियत किया। हमने पाचड को तीसरे प्रहर छोड़ा और सायंकाल सूर्यास्त के समय रायगढ़ के शिखर पर पहुँचे। यह स्थान प्राकृतिक रूप से अत्यंत सुदृढ़ है और कृत्रिम सुरक्षा के साथ अभेद्य प्रतीत होता है। किले में प्रवेश हेतु मात्र एक मार्ग है, जो दो संकरे द्वारों से सुरक्षित है तथा एक ऊँची मजबूत दीवार और बुर्जों से घिरा हुआ है। इसके अतिरिक्त, शेष पर्वत पूर्णतः दुर्गम और सीधा है, जिससे यह किला अपराजेय बन जाता है। किले में लगभग 300 महत्वपूर्ण भवन हैं, जिनमें महाराज का राजदरबार और उनके प्रमुख अधिकारियों के आवास सम्मिलित हैं। इसकी लंबाई लगभग 2 ½ मील और चौड़ाई 1 ½ मील है, किंतु यहाँ कोई फलदार वृक्ष या अन्न उत्पादन संभव नहीं। हमारा आवास महाराज के महल से लगभग एक मील की दूरी पर था, जहाँ हम संतोषपूर्वक विश्राम को गए।”

26 मई 1674: निराजी पंडित के प्रयासों से हमें महाराज का दरबार प्राप्त हुआ। यद्यपि वे अपने राज्याभिषेक, विवाह आदि महत्त्वपूर्ण कार्यों में व्यस्त थे, फिर भी उन्होंने हमें समय दिया। मैंने उन्हें तथा उनके पुत्र संभाजी राजे को परिषद् एवं अध्यक्ष द्वारा निर्धारित उपहार भेंट किए, जिन्हें उन्होंने प्रसन्नता से स्वीकार किया।”

हेनरी ऑक्सेंडन द्वारा 27 मई 1674 को रायगढ़ से बॉम्बे को लिखे पत्र में उल्लेख है, “महाराज अपने राज्याभिषेक और दो अन्य महिलाओं से विवाह को लेकर अत्यंत व्यस्त हैं।”

गजानन भास्कर लिखते हैं कि वास्तव में, शिवाजी महाराज ने इस अवसर पर कोई नया विवाह नहीं किया था। उनके मौंजीबंधन संस्कार (यज्ञोपवीत संस्कार) के उपरांत 29 मई 1674 को उन्होंने अपनी ही रानियों के साथ पुनर्विवाह किया। यह इसलिए आवश्यक था क्योंकि उनका पूर्व विवाह वेदिक रीति से नहीं हुआ था। यह विवाह शुद्ध वैदिक पद्धति से ‘सामांत्रिक विवाह’ और ‘मंत्र-विवाह’ के रूप में संपन्न किया गया।

ऑक्सेंडन ने पत्र में आगे लिखा, “राज्याभिषेक के उपरांत महाराज एक राजकीय टकसाल (मिंट) स्थापित करने का विचार रखते हैं।”

शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक समारोह का वर्णन

राज्याभिषेक के आयोजन 30 मई 1674 को प्रारंभ हुए और 6 जून 1674 को संपन्न हुए। इस अवसर के लिए प्रख्यात विद्वान गागाभट्ट ने विशेष रूप से एक संपूर्ण ग्रंथ की रचना की, जिसमें इन विविध अनुष्ठानों के संपादन की विधियाँ विस्तारपूर्वक वर्णित थीं। इस ग्रंथ को’ राजाभिषेकप्रयोग’ कहा जाता है, जिसकी एक प्रति वर्तमान में बीकानेर अभिलेखागार में सुरक्षित है।

हेनरी ऑक्सेंडन का विवरण राज्याभिषेक समारोह का एकमात्र ऐसा प्रत्यक्षदर्शी वर्णन है, जो किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखा गया था जो स्वयं रायगढ़ में इस अवसर पर उपस्थित था। किंतु चूँकि ये समस्त अनुष्ठान धार्मिक स्वरूप के थे और हेनरी ऑक्सेंडन हिंदू नहीं थे, अतः उन्हें इन संस्कारों को देखने की अनुमति नहीं मिली। उन्होंने केवल 6 जून 1674 को राज्याभिषेक के पश्चात आयोजित राजकीय दरबार में भाग लिया। इस समय निश्चलपुरी नामक एक तांत्रिक भी रायगढ़ में उपस्थित थे। उनके विवरण “शिवराज-राज्याभिषेक-कल्पतरु” में उपलब्ध हैं। हालांकि, यह लघु ग्रंथ स्वयं निश्चलपुरी द्वारा नहीं लिखा गया, बल्कि उनके शिष्य गोविंद नारायण बर्वे द्वारा संकलित किया गया था।

शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक से संबंधित विभिन्न अनुष्ठानों की संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करने के लिए हम निम्नलिखित स्रोतों पर आधारित रहेंगे।

राजाभिषेकप्रयोग
जेडे क्रमावली (Jedhe Chronology)
शिवापुर क्रमावली (Shivapur Chronology)
ऑक्सेंडन का विवरण (Oxenden's Narrative)
शिवराज-राज्याभिषेक-कल्पतरु

13 अक्टूबर 1674 को डच ईस्ट इंडिया कंपनी के सेवक अब्राहम ले फेबर (Abraham Le Feber) द्वारा वेंगुर्ला से गवर्नर जनरल और काउंसिल, डच ईस्ट इंडिया कंपनी को भेजा गया पत्र:

अब्राहम ले फेबर के बारे में ऐसा प्रतीत नहीं होता कि वे शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के समय रायगढ़ में उपस्थित थे। यह ज्ञात नहीं हो सका कि उन्होंने अपनी चिट्ठी में दी गई जानकारी कहाँ से प्राप्त की। मराठी इतिहास-ग्रंथों में भी राज्याभिषेक का वर्णन मिलता है, किंतु वे शिवाजी महाराज के उत्तरकाल में लिखे गए हैं और उनके कई अंश कल्पित प्रतीत होते हैं।

29 मई 1674: जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, जेडे और शिवापुर क्रमावलियों में वर्णित है कि इसी दिन शिवाजी महाराज का मौंजीबंधन (यज्ञोपवीत संस्कार) संपन्न हुआ। अब्राहम ले फेबर ने भी इसका उल्लेख किया है। 2899 इसी दिन शिवाजी महाराज की तुला (तुलादान) भी संपन्न की गई। हालांकि जेडे और शिवापुर क्रमावलियों में इसका उल्लेख नहीं मिलता, लेकिन ऑक्सेंडन के विवरण, ले फेबर के पत्र और शिवराज-राज्याभिषेक-कल्पतरु में इसका उल्लेख किया गया है।

डच पत्र के अनुसार, शिवाजी महाराज को सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा, वस्त्र, मसाले, घी, चीनी, फल और अन्य कई वस्तुओं के साथ तुलादान किया गया था। मौंजीबंधन और तुलादान को राज्याभिषेक के मुख्य अनुष्ठानों से पहले संपन्न किए गए संस्कारों के रूप में देखा जा सकता है। संभवतः यही कारण है कि राजाभिषेकप्रयोग ग्रंथ में इनका उल्लेख नहीं मिलता।

30 मई 1674: जेडे क्रमावली, शिवापुर क्रमावली और शिवराज-राज्याभिषेक-कल्पतरु के अनुसार, शिवाजी महाराज ने इस दिन वैदिक विधियों के अनुसार अपनी रानियों से पुनर्विवाह किया। जैसा कि राजाभिषेकप्रयोग में उल्लेखित है, इस दिन गणेश पूजन और पुण्याहवाचन जैसे धार्मिक अनुष्ठान भी संपन्न किए गए।

31 मई 1674: राजाभिषेकप्रयोग के अनुसार, इस दिन ऐन्द्रिशांति विधि (Aindrishantividhi) और ऐशन्य यज्ञ (Aishanyag) संपन्न किए गए।

1 जून 1674: राजाभिषेकप्रयोग के अनुसार, इस दिन ग्रहयज्ञ (Grahayajna) और नक्षत्र होम (Nakshatrahoma) जैसे अनुष्ठान किए गए।

2 जून 1674: यह दिन मंगलवार और ज्येष्ठ शुक्ल नवमी (हिंदू पंचांग के अनुसार ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि) था। राजाभिषेकप्रयोग के अनुसार, राज्याभिषेक से संबंधित कोई भी अनुष्ठान नवमी तिथि या मंगलवार को करना वर्जित माना गया था। अतः इस दिन कोई भी अनुष्ठान संपन्न नहीं किया गया।

3 जून 1674: इस दिन नक्षत्रयज्ञ (Nakshatrayajna) का आयोजन किया गया, जैसा कि राजाभिषेकप्रयोग में उल्लेखित है।

4 जून 1674: इस दिन निवृत्तियज्ञ (Nivrittiyag) संपन्न किया गया, जो कि राजाभिषेकप्रयोग में निर्दिष्ट था।

5 जून / 6 जून 1674: जेडे क्रमावली के अनुसार, शिवाजी महाराज के सिंहासनारोहण (राज्याभिषेक) के लिए शुभ मुहूर्त सूर्योदय से तीन घटी (72 मिनट) पूर्व तय किया गया था। यह समय ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, शक संवत 1596 के अनुसार निर्धारित किया गया था।

राज्याभिषेक से एक दिन पहले द्वादशी तिथि (12वीं तिथि) 2:00 से 3:00 बजे (रात्रि) के बीच समाप्त हुई।

तदुपरांत त्रयोदशी तिथि प्रारंभ हुई, और उसी शुभ मुहूर्त में शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक संपन्न किया गया।

यह अभिषेक हिंदू पंचांग के अनुसार शुक्रवार की रात में हुआ, किंतु पश्चिमी कैलेंडर के अनुसार यह 6 जून 1674 को पड़ा, क्योंकि वहाँ तिथि परिवर्तन रात्रि 12:00 बजे होता है।

राज्याभिषेक के उपरांत शिवाजी महाराज ने पारंपरिक रथारोहण (रथयात्रा) की और उसके पश्चात एक भव्य हाथी पर सवार होकर मंदिर के दर्शन करने गए। यह एक ऐतिहासिक अवसर था जब किसी हिंदू शासक का हिंदू परंपरा के अनुसार विधिपूर्वक राज्याभिषेक संपन्न हुआ। तत्कालीन इतिहास में यह एक अनोखी घटना थी।

क्या ब्राह्मण समाज ने राज्याभिषेक का विरोध किया था?

गजानन भास्कर लिखते हैं कि यह धारणा कि ब्राह्मण समाज ने शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक का विरोध किया था, किसी भी समकालीन या प्रामाणिक स्रोत द्वारा समर्थित नहीं है। वास्तव में शिवाजी महाराज के सिंहासनारोहण का हिंदू समाज, विशेषकर ब्राह्मणों द्वारा व्यापक रूप से स्वागत किया गया था।

हेनरी ऑक्सेंडन का विवरण

5 जून 1674: “निराजी पंडित ने मुझे यह संदेश भेजा कि अगले दिन सुबह लगभग सात या आठ बजे राजा शिवाजी सिंहासन पर बैठने वाले हैं। उन्होंने मुझसे अनुरोध किया कि मैं इस शुभ अवसर पर उन्हें बधाई देने आऊं और यह भी बताया कि पूर्वी देशों की प्रथा के अनुसार किसी शासक से मिलने के समय खाली हाथ नहीं जाना चाहिए, बल्कि कोई उपहार साथ ले जाना आवश्यक है। मैंने उन्हें उत्तर दिया कि मैं उनकी सलाह के अनुसार निर्धारित समय पर राजा शिवाजी से मिलने अवश्य आऊंगा।”

6 जून 1674: “सुबह 7 या 8 बजे, मैं दरबार में पहुँचा और मैंने देखा कि राजा शिवाजी एक भव्य सिंहासन पर विराजमान थे। सभी दरबारी और सरदार शानदार वस्त्रों में उनके सम्मान में उपस्थित थे। उनके पुत्र संभाजी राजे, पेशवा मोरो पंडित और एक प्रसिद्ध ब्राह्मण, जो सिंहासन के नीचे एक ऊँचे स्थान पर बैठे थे, भी उपस्थित थे। इसके अलावा, सेना के अधिकारी और अन्य लोग बड़े सम्मान के साथ खड़े थे। मैंने दूर से ही नम्रतापूर्वक प्रणाम किया। इस दौरान, नारायण शेनवी ने वह हीरे की अंगूठी उठाई, जिसे उपहारस्वरूप शिवाजी को भेंट किया जाना था। राजा शिवाजी ने तुरंत हमारी उपस्थिति को स्वीकार किया और हमें सिंहासन के पास आने का आदेश दिया। वहाँ हमें औपचारिक वस्त्र धारण कराए गए, इसके बाद हमें पीछे हटने के लिए कहा गया।

मैंने यह भी देखा कि सिंहासन के दोनों ओर सोने की मढ़ी हुई भालों पर शासन के प्रतीक लगे हुए थे।

दाएँ ओर सोने के बने दो विशाल मछलियों के सिर, जिनके बड़े-बड़े दांत थे।

बाएँ ओर कई घोड़ों की पूंछें।

एक सुनहरी तराजू (संतुलित रूप में), जो न्याय का प्रतीक थी।

जब हम महल के द्वार से बाहर आए, तो हमने देखा कि प्रवेश द्वार पर दोनों ओर दो छोटे हाथी और दो सुंदर घोड़े खड़े थे। ये घोड़े सोने की लगाम और शानदार सजावट से सुसज्जित थे। हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इन्हें इतनी ऊँचाई तक कैसे लाया गया, क्योंकि रास्ता अत्यंत कठिन और खतरनाक था। 2904
शिवाजी महाराज द्वारा नया संवत प्रारंभ करना

शिवाजी महाराज ने अपने राज्याभिषेक के दिन से एक नए संवत (कैलेंडर) की शुरुआत की, जो कि ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, शक संवत 1596 (6 जून 1674) से प्रारंभ हुआ। इसके बाद जारी किए गए सभी शासकीय दस्तावेजों में इस नए संवत का उल्लेख किया गया। हालाँकि, उन्होंने अपने सामान्य पत्राचार में पहले की तरह ही शुहर संवत (Shuhur Calendar) का उपयोग जारी रखा। उनके नए संवत वाले दस्तावेजों में उन्हें “क्षत्रिय-कुलावतंस श्री राजा शिवछत्रपति” के रूप में संबोधित किया गया। जबकि पुराने संवत के दस्तावेजों में, पूर्व की परंपरा के अनुसार, उन्हें केवल “राजश्री शिवाजी राजे” कहा गया।

इस प्रकार, “राजा शिवछत्रपति” वह औपचारिक उपाधि थी, जिसे शिवाजी महाराज ने अपने राज्याभिषेक के बाद धारण किया।
शिवाजी महाराज के सिक्के शिवाजी महाराज द्वारा जारी सोने और तांबे के सिक्कों पर “राजा शिवछत्रपति” की मुद्राएँ अंकित थीं। इससे यह स्पष्ट होता है कि ये सिक्के राज्याभिषेक के बाद जारी किए गए।

ऑक्सेंडन के 27 मई 1674 को बॉम्बे भेजे गए पत्र में यह उल्लेख किया गया है कि शिवाजी महाराज ने राज्याभिषेक के बाद अपना खुद का टकसाल (मिंट) स्थापित करने की योजना बनाई थी।

राज्याभिषेक पर हुआ खर्च

डच ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी अब्राहम ले फेबर के अनुसार, शिवाजी महाराज ने अपने राज्याभिषेक और दान-पुण्य पर 1,50,000 पगोडा (यानी होन) खर्च किए। जबकि सभासद बखर के अनुसार, यह खर्च 1,42,00,000 होन था। पहली राशि कम आँकी गई प्रतीत होती है, जबकि दूसरी राशि अत्यधिक बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई लगती है। वास्तविक खर्च कितना हुआ, इसका कोई प्रमाणिक स्रोत उपलब्ध नहीं है। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि राज्याभिषेक पर बहुत बड़ी धनराशि खर्च की गई थी।

इसीलिए, राज्याभिषेक के बाद “सिंहासन पत्ती” या “मिरास पत्ती” नामक एक नया कर वतनदारों पर लगाया गया। शिवाजी महाराज की माता जीजाबाई का निधन राज्याभिषेक के कुछ ही दिनों बाद, 17 जून 1674 को पचाड़ में हुआ।

अब्राहम ले फेबर लिखते हैं, “शिवाजी की माता, जो अपने पुत्र के राज्याभिषेक में शामिल होने के लिए आई थीं, लगभग 80 वर्ष की थीं। वे राज्याभिषेक के 12 दिन बाद दिवंगत हो गईं। मरते समय, उन्होंने शिवाजी महाराज को लगभग 25 लाख पगोडा (सोने की मुद्रा) की संपत्ति सौंपी, कुछ लोग कहते हैं कि यह राशि इससे भी अधिक थी।”

शिवाजी महाराज का दूसरा राज्याभिषेक

रायगढ़ किले में शिवाजी महाराज का पहला राज्याभिषेक संपन्न हुआ, जिसमें निश्चलपुरी उपस्थित थे। बाद में 24 सितंबर 1674 (अश्विन शुद्ध पंचमी, शक संवत 1596, ललितापंचमी) को उन्होंने शिवाजी महाराज का दूसरा राज्याभिषेक संपन्न कराया। निश्चलपुरी ने इस घटना का वर्णन अपने शिष्य गोविंद नारायण बारवे को बताया, जिन्होंने इसे ‘शिवराज-राज्याभिषेक-कल्पतरु’ ग्रंथ में लिपिबद्ध किया।

इस ग्रंथ के अनुसार, पहले राज्याभिषेक में कुछ तांत्रिक विधियों का सही से पालन नहीं हुआ था, जिसके कारण कुछ अशुभ घटनाएँ घटीं—

प्रतापराव गुजर (सेनापति) का युद्ध में निधन।

शिवाजी महाराज की पत्नी काशीबाई का देहांत।

यज्ञोपवीत संस्कार (जनेऊ) के एक दिन पहले आकाश में उल्का (टूटता तारा) दिखाई देना।

इसके अलावा, गागाभट्ट ने निश्चलपुरी द्वारा भेजे गए ब्राह्मणों का अपमान किया और शिवाजी महाराज को यह निर्देश दिया कि वे उन्हें (गागाभट्ट को) प्रणाम न करें। इसके बाद कुछ अशुभ संकेत दिखे—

गागाभट्ट की नाक पर लकड़ी का एक टुकड़ा गिरा।

शिवाजी महाराज के कुल पुरोहित बालंभट्ट के सिर पर लकड़ी का सजावटी कमल गिर पड़ा।

इसके अलावा, गागाभट्ट ने भी कुछ अनुष्ठानों में त्रुटियाँ कीं।

अशुभ मुहूर्त में राज्याभिषेक संपन्न कराया।

पर्वत, वेताल (पाताल लोक के राजा), और अन्य देवताओं की बलि नहीं दी।

देवी शिर्काई की पूजा नहीं कराई।

इन कारणों से जब निश्चलपुरी पहले राज्याभिषेक के बाद रायगढ़ से निकले तो उन्होंने शिवाजी महाराज को आगामी संकटों के प्रति सचेत किया। इन अशुभ संकेतों से चिंतित होकर शिवाजी महाराज ने निश्चलपुरी से अनुरोध किया कि वे तांत्रिक विधियों से दूसरा राज्याभिषेक संपन्न कराएँ। निश्चलपुरी ने 24 सितंबर 1674 (ललितापंचमी) को निश्चलपुरी ने विधिपूर्वक तांत्रिक पद्धति से शिवाजी महाराज का दूसरा राज्याभिषेक कराया।

शिवापुर क्रॉनिकल में शक 1596 के अंतर्गत निम्नलिखित उल्लेख मिलता है:
“आश्विन शुद्ध 5: पुनः राज्याभिषेक।”

हालाँकि शिवापुर क्रॉनिकल में निश्‍चलपुरी का नाम नहीं लिया गया है, लेकिन यह स्पष्ट है कि यह उसी दूसरे राज्याभिषेक की ओर संकेत करता है, जिसका आयोजन निश्‍चलपुरी ने किया था। इस ग्रंथ में शिवाजी की शादियों, प्रतापराव, काशीबाई और जीजाबाई की मृत्यु का उल्लेख किया गया है, और ये घटनाएँ अन्य समकालीन स्रोतों द्वारा प्रमाणित भी होती हैं। हालाँकि, इसमें मौजूद अन्य विवरण, जो अन्यत्र प्रमाणित नहीं हैं, को पूर्णतः ऐतिहासिक तथ्य नहीं माना जा सकता। इसलिए, इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि शिवाजी का दूसरा राज्याभिषेक, निश्‍चलपुरी की सलाह पर, 24 सितंबर 1674 को तांत्रिक विधियों से संपन्न हुआ था।

फारसी स्रोतों में शिवाजी के राज्याभिषेक का कोई उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन सभासद क्रॉनिकल में इसका विस्तृत वर्णन किया गया है कि मुगल सम्राट, आदिलशाह और अन्य मुस्लिम शासकों ने इस खबर को कैसे लिया। सभासद लिखते हैं:

“इस प्रकार राजा को सिंहासन पर आसीन किया गया। इस युग में, संपूर्ण विश्व में मुस्लिम शासकों का प्रभुत्व है। केवल यह मराठा राजा ही ऐसा है जो छत्रपति बना है। यह घटना कोई साधारण बात नहीं है।”

बहादुर खान कोकण ने इस राज्याभिषेक की खबर दिल्ली के मुगल सम्राट को भेजी। जब सम्राट ने यह सुना, तो वह सिंहासन से उठकर हरम (रानियों के कक्ष) में चला गया। उसने दोनों हाथों से ज़मीन पर प्रहार किया और अत्यधिक शोक व्यक्त करते हुए बार-बार अपने ईश्वर का नाम लेने लगा।

वह दो दिनों तक भूखा-प्यासा रहा और दुःख में कहता रहा, “ईश्वर ने मुस्लिमों का साम्राज्य छीन लिया है, हमारे सिंहासन को नष्ट कर दिया है और इसे एक मराठा को सौंप दिया है। अब यह घटनाएँ अपने चरम पर पहुँच चुकी हैं!”

इस प्रकार वह अत्यधिक शोक में रहा और विलाप करता रहा। तब उसके प्रमुख मंत्रियों ने उसे तरह-तरह से सांत्वना दी और वादे करके उसे पुनः सिंहासन पर बैठाया। इसी प्रकार जब बीजापुर और भाग्यनगर (हैदराबाद) के सुल्तानों और अन्य मुस्लिम शासकों को यह समाचार मिला, तो वे भी बहुत दुखी हुए। इसके अलावा, कॉन्स्टेंटिनोपल (तुर्की), सीरिया (शाम), फारस (ईरान), तुर्किस्तान (तुरान) और समुद्री क्षेत्रों के सुल्तान भी इस समाचार से व्याकुल हो गए और उन्होंने इसे एक बड़ी विपत्ति के रूप में देखा।

गजानन भास्कर लिखते हैं कि सभासद द्वारा दी गई यह जानकारी शायद अतिरंजित या काल्पनिक हो सकती है। फिर भी, इसका सार सत्य प्रतीत होता है। मुगल सम्राट और आदिलशाह निश्चित रूप से इस खबर से अत्यधिक निराश हुए होंगे। क्योंकि, जैसा कि सभासद ने सरल और प्रभावशाली शब्दों में लिखा है: “यह कोई साधारण घटना नहीं थी कि एक मराठा शासक छत्रपति बना!”

इसके अलावा हमे छत्रपति शिवाजी को लेकर भवन सिंह राणा की किताब के बारें में भी पता चला। सत्याहिंदी की रिपोर्ट के मुताबिक इस किताब में छत्रपति शिवाजी में उनके उनका राज्याभिषेक से जुड़े प्रसंगों की चर्चा की गई है। अपनी किताब में भवन सिंह लिखते हैं कि 1674 से पहले शिवाजी सिर्फ एक स्वतंत्र शासक थे। उनका राज्याभिषेक नहीं हुआ था और आधिकारिक तौर पर वह साम्राज्य के शासक नहीं थे। छत्रपति शिवाजी ने कई लड़ाइयां जीतीं थीं लेकिन तब तक बतौर राजा उन्हें स्वीकार नहीं किया गया था।

शिवाजी ने गद्दी संभालने की तैयारी 1673 से ही शुरू कर दीं थीं लेकिन राज्याभिषेक से पूर्व उनके सामने एक बड़ी समस्या तब खड़ी हुई जब उस दौर के रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने शिवाजी को राजा मानने से ही इंकार कर दिया। उनके मुताबिक क्षत्रिय जाति से ही कोई राजा बन सकता है। उनका कहना था कि शिवाजी क्षत्रिय नहीं हैं इसलिए उनका राज्याभिषेक नहीं हो सकता है।

इतिहासकारों के मुताबिक पंडित गंग भट्ट ने मराठावाड़ के ब्राह्मणों को मनाया और शिवाजी के राज्याभिषेक की तैयारियां शुरू करवाईं। इस समारोह में कई मशहूर शख्सियतें शामिल होने के लिए रायगढ़ पहुंची। इसके लिए देश के बड़े-बड़े पंडितों को बुलावा दिया गया। शिवाजी ने गद्दी संभालने की तैयारी 1673 से ही शुरू कर दीं थीं लेकिन राज्याभिषेक से पूर्व उनके सामने एक बड़ी समस्या तब खड़ी हुई जब उस दौर के रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने शिवाजी को राजा मानने से ही इंकार कर दिया। उनके मुताबिक क्षत्रिय जाति से ही कोई राजा बन सकता है। उनका कहना था कि शिवाजी क्षत्रिय नहीं हैं इसलिए उनका राज्याभिषेक नहीं हो सकता है। पंडित गंग भट्ट ने मराठावाड़ के ब्राह्मणों को मनाया और शिवाजी के राज्याभिषेक की तैयारियां शुरू करवाईं। इस समारोह में कई मशहूर शख्सियतें शामिल होने के लिए रायगढ़ पहुंची। इसके लिए देश के बड़े-बड़े पंडितों को बुलावा दिया गया।

रिपोर्ट के मुताबिक मान्यता है कि राज्याभिषेक समारोह में 50 हज़ार से ज़्यादा लोग शामिल हुए थे। राज्याभिषेक में शामिल हुए लोगों ने 4 महीने, शिवाजी की मेहमान नवाज़ी में गुज़ारे। पंडित गंग भट्ट को लाने के लिए विशेष दूत काशी भेजे गये थे। जो स्थानीय ब्राह्मण राज्याभिषेक का विरोध कर रहे थे वे भी पंडित गंग भट्ट के तर्कों से सहमत हुए और इसके बाद धूमधाम से शिवाजी के राज्याभिषेक की तैयारियां शुरू हुईं। शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक पूरी तरह वैदिक रीति-रिवाज़ों से हुआ। उन्होंने इसमें शामिल हुए सभी पंडितों और मेहमानों को उपहार भी दिए थे। मंत्रोचारण कर उन्हें राजा की वेशभूषा पहनाई गई। इस अवसर पर छत्रपति शिवाजी के अलावा उनके 8 अन्य मंत्रियों ने भी अपनी उपाधि ग्रहण की थी। इसके बाद हाथियों को सजा कर भव्य मार्च निकाला गया। शिवाजी उनमें से एक हाथी पर बैठकर रायगड़ की सड़कों पर निकले जहां उनका भव्य स्वागत किया गया।

दावा हकीकत
छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक पैर के अंगूठे से किया गया था।छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक में 11000 ब्राह्मण शामिल हुए थे, उनके परिवारों सहित लोगों की संख्या करीबन 50,000 थी। इतिहासकार जदुनाथ सरकार अपनी किताब में बताते हैं कि रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने शिवाजी को राजा मानने से ही इंकार कर दिया था क्योंकि वो क्षत्रिय नहीं थे लेकिन बाद में उन्हें क्षत्रिय बनाया गया ब्राह्मणों ने वेद मंत्रों का उच्चारण किया और शिवाजी को आशीर्वाद दिया। ब्राह्मण गागा भट्ट ने सोने की किनारी से जड़ा रेशमी छत्र शिवाजी के सिर पर रखा और उनके छत्रपति होने की घोषणा की, इस तरह शिवाजी का राज्याभिषेक सम्पन्न हुआ। वहीं मराठी इतिहासकार गजानन भास्कर ब्राह्मणों के विरोध की बात को भी नकार देते हैं। इसके अलावा भवन सिंह राणा ने अपनी किताब में भी राज्याभिषेक को लेकर लिखा है लेकिन एक बात स्पष्ट है कि तीनों ही इतिहासकारों ने पैर के अंगूठे से तिलक करने का कोई जिक्र नहीं किया।

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