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12 Mar 2025, Wed

तमिलनाडु में 44 दलितों की हत्या ब्राह्मणों ने नहीं की, लल्लनटॉप ने फैलाया झूठ

बीते दिनों से सोशल मीडिया में मीडिया संस्थान लल्लनटॉप चर्चा का विषय बना हुआ है। लोग दावा कर रहे हैं कि लल्लनटॉप ने अपने एक वीडियो में तमिलनाडु में 44 दलितों की हत्या का झूठा आरोप ब्राह्मणों पर लगाया है। लल्लनटॉप का यह वीडियो एक साल पुराना है, सोशल मीडिया में लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं।

पत्रकार शुभम शुक्ला ने एक्स पर लल्लनटॉप की रिपोर्ट का वीडियो पोस्ट करते हुए लिखा, ‘ब्राह्मण गरीब है, पीड़ित है, शोषित है, वंचित है, उस पर अत्याचार करो फिर उसे ही अत्याचारी बता दो? झूठी कहानियाँ बना दो? उसके ख़िलाफ़ नफ़रत फैला दो। ब्राह्मण है, क्या ही कर लेगा? यहां 44 दलितों के हत्यारे जमींदार/लठैत हैं। लेकिन यहां भी ब्राह्मण घुसेड़ दिया? निखिल नामक ये व्यक्ति इस विडियो में बार-बार ब्राह्मण नाम ले रहे हैं। दर्दनाक/हृदयविदारक इस घटना को भी ब्राह्मण VS दलित बना दिया? ये व्यक्ति लल्लनटॉप छोड़ चुके हैं। लेकिन ना जाने ऐसे कितनी झूठी कहानियां बने होंगे?’

यति शर्मा ने लिखा, ‘पिछले कई दिनों से सोशल मीडिया पर कई वीडियो इन भाई साहब के मैंने देखे कई वीडियो की सच्चाई इनके द्वारा बताई गई सच्चाई से परे है ज्यादातर वीडियो में छूट परोसा गया है लाखों की संख्या में फॉलोअर्स है तो तुम्हारा हर बकवास सत्य मान लिया जायेगा ?ऐसा नहीं होगा’

श्रीकांत उपाध्याय ने लिखा, ‘पैसे से लाखों फॉलोवर्स बनाओ फिर ब्राह्मणों के प्रति झूठ फैलाए। ऐसे एजेंडाधारियो को छोड़ना चाहिए क्या?? तुम दुष्प्रचार करोगे तो हम शांत नहीं बैठेंगे’

मोहित ने लिखा, ‘ब्राह्मण भाइयों… आज तुम्हें ‘किल्वेनमनी नरसंहार’ का अपराधी बता दिया गया है…तुम चुप हो। कल तुमको…किसी आतंकवादी घटना का अपराधी भी घोषित कर देंगे ये। जो अपराध तुमनें किया ही नही…उसका झूठा आरोप क्यों सहना ? इस केस में अपराधी ‘OBC जमींदार’ वर्ग से हैं।’

एक साल पुराना है लल्लनटॉप का वीडियो
अपनी पड़ताल में हमे वायरल लल्लनटॉप का यह वीडियो उनकी वेबसाईट और यूट्यूब चैनल पर मिला। यह वीडियो नवम्बर 2023 को अपलोड किया गया था। लल्लनटॉप के इस वीडियो में पत्रकार निखिल ने बताया है कि दक्षिण भारत में इस तरह के अनगिनत उदाहरण हैं। जिनसे ये पता चलता है कि यहां कभी दलितों के साथ किस स्तर का भेदभाव हुआ करता था लेकिन 15 अगस्त 1947 को जब भारत को आजादी मिली तो इस दलितों और पीछे वर्ग को लगा कि संविधान के जरिए अब सामाजिक एकरूपता आएगी आयी भी, लेकिन सिर्फ दस्तावेजों में। आजादी के बाद भी ब्राह्मणों और दलितों के बीच टकराव बंद नहीं हुआ बल्कि ये और बढ़ गया। कई ऐसे मौके भी हैं, जब ऐसे मामले न्याय की देहरी तक पहुंचे, लेकिन फिर भी पिछड़ों और दलितों को न्याय नहीं मिला। 1968 में भी एक ऐसी ही घटना हुई थी। उस साल 25 दिसंबर की रात तमिलनाडु के तंजावुर जिले के किल्वेंमनी गांव में 44 दलितों को जलाकर मार दिया गया था। मरने वालों में कई औरतें और बच्चे भी शामिल थे। हत्यारों में से किसी एक को भी सज़ा नहीं हुई।जबकि ये आजाद भारत में सबसे शुरुआती और सबसे हिंसक अपराधों में से एक था।

निखिल ने इस हत्याकांड के सम्बन्ध में बताते हुए यह भी कहा कि किल्वेंमनी नरसंहार सदियों से चली आ रही ब्राह्मण बनाम दलितों वर्चस्व की लड़ाई का एक और पढाव था। इसे समझने के लिए इतिहास में थोडा पीछे चलते हैं, ऐसा माना जाता है कि पांच सौ-साढ़े सात सौ ईस्वी दक्षिण भारत में ब्राह्मणवाद का उत्थान हुआ, कांची के पल्लव से लेकर बादामी के चालुक्य और मधुरे के पांड्य वंशजो तक ब्राह्मणों और मंदिरों के पुजारियों को खुश रखने के लिए वो सब कुछ किया, जो वो कर सकते थे। उन्हें रुपया पैसा दिया, सोने के सिक्कों के अलावा, टैक्स फ्री जमीनें और मवेशियों का दान भी.. राजा के दरबार में उनका अलग लेवल का सम्मान था। इसका नतीजा ये हुआ कि दक्षिण भारत की अधिकांश जमीन पर क्रमशः ब्राह्मण समाज का एकाधिकार होता गया। इनमे खेतिहर किसान यानि कथित नीची जाति के हिंदू मजदूर काम करते थे। इन मजदूरों के पास अपनी जमीन नहीं थी तो वो रोजी रोटी के लिए सवर्णों पर ही निर्भर थे, उनकी जमीन पर काम करेंगे तब गुजारा होगा। इससे परेशान होकर जब कुछ दलित बौद्ध धर्म को अपनाने लगे तो सवर्णों और दलितों के बीच की खाई चौड़ी हो गयी।

क्या है हकीकत? अपनी पड़ताल में हमे सबसे पहले ‘द हिंदू की वेबसाइट पर प्रकाशित एक रिपोर्ट मिली। इस रिपोर्ट के मुताबिक 25 दिसंबर, 1968 की रात को तमिलनाडु के किलवेनमनी गांव में अनुसूचित जाति के 44 लोगों को जिंदा जला दिया गया था। यह सभी लोग मजदूरी बढाने का काम कर रहे थे लेकिन जमींदार गोपालकृष्ण नायडू और उसके साथियों ने सभी मजदूरों को एक झोपड़ी में बंद कर दिया और जिंदा जला दिया। रिपोर्ट के मुताबिक सत्र न्यायालय ने आरोपियों को 10 साल की सजा सुनाई लेकिन उच्च न्यायालय ने गोपाल कृष्ण नायडू और अन्य को इस आधार पर बरी कर दिया कि आगजनी करने वालों को पता नहीं था कि झोपड़ी के अंदर 42 लोग मौजूद थे। गोपाल कृष्ण नायडू की बाद में वामपंथी दल के सदस्य ने हत्या कर दी।

इसके बाद हमे इस सम्बन्ध में ‘South First’ वेबसाईट पर प्रकाशित एक आर्टिकल मिला। इस लेख को तमिलनाडु की दलित एक्टिविस्ट, सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका शालिन मारिया लॉरेंस ने लिखा है। इस लेख के मुताबिक 25 दिसंबर 1968 को तमिलनाडु के तंजौर जिले में नागपट्टिनम के पास कीझवेनमनी गांव में नायडू जाति के सामंती लोगों ने देवेंद्र कुला वेल्लालर और परैयार समुदायों के 44 दलितों महिलाओं, पुरुषों और बच्चों को एक झोपड़ी के अंदर बंद कर दिया और जिंदा जला दिया। यह इतिहास के सबसे भयानक दलित नरसंहारों में से एक था।

इस मामले में 23 लोगों के खिलाफ़ एफआईआर दर्ज की गई, जिनमें से मुख्य आरोपी गोपालकृष्ण नायडू थे और 22 अन्य ज़मीन मालिक सह आरोपी थे। नायडू को दोषी ठहराया गया और 1970 में 11 नवंबर को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई लेकिन नायडू को 1975 में अपील करने के बाद बरी कर दिया गया। अदालत द्वारा रिहा किये जाने के बाद नायडू की उसी दलित समुदाय के श्री अमलराज ने हत्या कर दी थी। उन्होंने बचपन में इन हत्याओं को देखा था। 25 दिसंबर 1980 की शाम को, जिस दिन उन्होंने दलितों की हत्या की थी, नायडू को अमलराज ने 44 बार चाकू घोंपा था।

लेख में बताया गया है कि भारत में जाति-आधारित गुलामी के उन्मूलन के 100 साल बाद भी सामंती जाति के भूस्वामियों के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया।जाति की ताकत हमेशा राजनीतिक ताकत पर भारी पड़ती है। उन पर कोई कानून, कोई नियम नहीं थोपा जा सकता।यह 20वीं सदी थी और उनके पास उसी जाति-आधारित व्यवस्था को जारी रखने के आधुनिक तरीके थे। हालाँकि तमिलनाडु में खेतिहर मज़दूर अलग-अलग पिछड़ी जातियों से आते थे, लेकिन उनमें से 80 प्रतिशत दलित थे। भूमिहीन होने और अन्य जाति-आधारित नौकरियों से बहिष्कृत होने के कारण, उन्हें खेत मजदूर बनने के लिए मजबूर होना पड़ा। जमींदारों ने दयनीय सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का फायदा उठाया और उन्हें बहुत कम वेतन दिया।लेकिन यह 19वीं सदी नहीं थी जब उन्हें कुछ भी भुगतान नहीं किया जाता था। यह एक स्वतंत्र, स्वतंत्र, विकासशील देश था।सामंती ज़मींदारों ने उन्हें कुछ ज़्यादा ही दिया। जबकि अन्य पिछड़ी जाति के मज़दूरों को ज़्यादा भुगतान नहीं किया जाता था, दलित मज़दूरों को और भी कम भुगतान किया जाता था। ज़्यादातर, उन्हें पैसे में भुगतान नहीं किया जाता था, बल्कि मज़दूरी के तौर पर खेती की गई चावल की थोड़ी मात्रा दी जाती थी।

हरित क्रांति की शुरुआत के साथ ही उत्पादन में वृद्धि हुई और कृषि मजदूरों को एहसास हुआ कि अब समय आ गया है कि उन्हें वेतन में वृद्धि मिलनी चाहिए। उन्हें बस आधा किलो ज़्यादा चावल चाहिए था। त्रिपक्षीय समझौता तो हुआ लेकिन ज़मीन मालिकों ने वादे के मुताबिक काम नहीं किया। इसलिए मज़दूरों ने सीपीएम के साथ मिलकर एक नया उग्र आंदोलन शुरू किया।यह करो या मरो की स्थिति थी। यह वेतन वृद्धि से कहीं अधिक था। यह सम्मान के बारे में था।दलितों ने जमींदारों से सम्मान की मांग की। उन्होंने मांग की कि उनके साथ इंसानों जैसा व्यवहार किया जाए, जानवरों जैसा नहीं। उन्होंने समानता की मांग की। उन्होंने मांग की कि उनके शारीरिक श्रम का शोषण बंद किया जाए।साम्यवाद की बदौलत मजदूरों को एहसास हुआ कि उन्हें उनके शारीरिक श्रम के लिए उचित मुआवजा मिलना चाहिए, चाहे उनकी जाति कुछ भी हो। उन्हें एहसास हुआ कि उन्हें कितना भुगतान किया जाए, इसका निर्धारण जाति के आधार पर नहीं होता, बल्कि यह उनका काम है जो इसे निर्धारित करता है। नवंबर 1968 में भूस्वामियों के संघ का प्रमुख गोपालकृष्ण नायडू के नेतृत्व में एक सम्मेलन आयोजित हुआ और उन्होंने अपने खिलाफ विद्रोह करने वाले किसी भी व्यक्ति को मार डालने की साजिश रची।25 दिसंबर 1968 की रात को, जब दलित पुरुष पक्कीरी की हत्या के लिए कानूनी मदद लेने के लिए गांव से बाहर गए हुए थे, तब साथी कार्यकर्ता नायडू ने 22 अन्य भूस्वामियों और सैकड़ों उपद्रवियों के साथ गांव को घेर लिया।घरों में केवल महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग थे। मकान मालिकों ने बाहर निकलने के सभी रास्ते बंद कर दिए और लोगों पर बेरहमी से बंदूकों से गोलियां चलानी शुरू कर दीं।मारे जाने से बचने के लिए लोग तितर-बितर होने लगे और उनमें से 44 लोग पास की एक झोपड़ी में घुस गए और शरण ली। नायडू को पता था कि वे अंदर हैं, इसलिए उसने झोपड़ी का दरवाज़ा बंद कर दिया, उस पर मिट्टी का तेल छिड़का और उसे जला दिया।’

इस लेख के मुताबिक 12 जनवरी 1969 को को नागपट्टिनम जिले के सेम्बनार कोइल में अपने भाषण में पेरियार ने दलितों को संबोधित करते हुए कहा कि कम्युनिस्ट आपकी मदद करने का दिखावा कर रहे हैं। वे आपको वेतन वृद्धि और बेहतर जीवन का वादा करते हैं। लेकिन राजनीतिक आंदोलन के ज़रिए वेतन वृद्धि संभव नहीं है। यह सिर्फ़ वस्तुओं के बाज़ार मूल्य से ही संभव है। आपको मिलने वाले वेतन से शांतिपूर्वक जीवन जीने का तरीका सिखाने के बजाय, वे राज्य में दंगे करवाना चाहते हैं और डीएमके सरकार को भंग करना चाहते हैं।

ऐसा लगता है कि पेरियार को 44 लोगों की जान जाने की अपेक्षा भूस्वामियों और डीएमके सरकार की अधिक चिंता थी। वास्तव में, यह जानना बहुत दिलचस्प है कि पेरियार की शिवाजी गणेशन से गहरी मित्रता थी, जो उस क्षेत्र के एक प्रभावशाली जाति के अभिनेता थे, एक ज़मींदार थे और नरसंहार के समय ज़मींदार संघ के सदस्य थे। द्रविड़ इतिहासकारों और लेखकों द्वारा पेरियार के कार्यों को छुपाने या एक वैकल्पिक वास्तविकता को सामने रखने के लिए हजारों पुस्तकें लिखी जा सकती हैं, लेकिन कुछ भी इन शब्दों और कार्यों को नहीं मिटा सकेगा।

इसके बाद हमने शालिन मारिया लॉरेंस से संपर्क किया। हमने शालिन के साथ लल्लनटॉप का वीडियो शेयर किया तो उन्होंने बताया कि अपराधियों की जाति के बारे में यह बिल्कुल फर्जी खबर है। 44 दलितों की हत्या की इस घटना में नायडू और अन्य ओबीसी जातियां शामिल थीं। ब्राह्मण कोई नहीं था।

दावा तमिलनाडू में साल 1968 में ब्राह्मणों ने 44 दलितों की हत्या की थी।
हकीकततमिलनाडु के तंजौर जिले में नागपट्टिनम के पास कीझवेनमनी गांव में 44 दलितों की हत्या की इस घटना में नायडू और अन्य ओबीसी जातियां शामिल थीं। ब्राह्मण कोई नहीं था।

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